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________________ जैनधर्मामृत यत्खलु कपाययोगात् प्राणानां द्रव्य-भावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥७॥ कपायरूप परिणत हुए मन-वचन-कायके योगसे जो द्रव्य और भावरूप दो प्रकारके प्राणोंका घात किया जाता है, वह निश्चयतः हिंसा है ॥७॥ भावार्थ-जिस पुरुषके मन, वचन और कायमें क्रोधादि कषाय प्रकट होते हैं, उसके शुद्धोपयोगरूप भावप्राणोंका घात पहले होता है, क्योंकि कपायोंके प्रादुर्भावसे भावप्राणका हनन होता है, यह प्रथम हिंसा है। पश्चात् यदि कपायोंकी तीव्रतासे, दीर्घ श्वासोच्छ्वाससे अथवा हस्त-पादादिकसे वह अपने अंगको कष्ट पहुँचाता है या आत्मघात कर लेता है, तो उसके द्रव्य प्राणों का घात होता है, यह दूसरी हिंसा है। पुनः उसके कहे हुए मर्म-भेदी कुवचनादिसे या हास्यादिसे किसी पुरुषके अन्तरंगमें पीड़ा होती है और उसके भावप्राणोंका घात होता है तो यह तीसरी हिंसा है। और अन्तमें उसकी तीव्र कषायसे विवक्षित पुरुषको जो शारीरिक पीड़ा पहुँचाई जाती है, उसे परद्रव्य-प्राणव्यपरोपण कहते हैं, यह चौथी हिंसा है। कहनेका सार यह है कि कषायके वश होकर अपने और परके भावप्राण एवं द्रव्य-प्राण का घात करना हिंसा है और उस हिंसाके चार भेद होते हैं--- स्व-भावहिंसा, स्व-द्रव्यहिंसा, पर-भावहिंसा और पर-द्रव्यहिंसा । अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेपामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥८॥ आत्मामें रागादि भावोंका प्रकट नहीं होना ही अहिंसा है और
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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