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जैनधर्मामृत
अवधिज्ञानको अनुगामी कहते हैं । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होनेके पश्चात् उत्तरोत्तर बढ़ता जावे, उसे वर्धमान कहते हैं । जो उत्पन्न होनेके पश्चात् उत्तरोत्तर घटता जावे उसे हीयमान कहते हैं । जो अवधिज्ञान उत्पन्न होनेके पश्चात् न घटे और न बढ़े, किन्तु उस भवके अन्त तक ज्यों का त्यों बना रहे, उसे अवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं । कभी घटनेवाले और कभी बढ़नेवाले अवधिज्ञानको अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं । देव- नारकियों के अवधिज्ञान यतः उस भवके निमित्तसे उत्पन्न होता है, अतः उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। और वह प्रत्येक देव और नारकीके नियमसे होता है, मनुष्य तिर्यञ्चोंके वह सर्व के नहीं होता, किन्तु जिसके अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होगा, उसीके होगा ।
मन:पर्यय ज्ञानका स्वरूप
ऋजुर्विपुल इत्येवं स्यान्मनः पर्ययो द्विधा । विशुद्ध प्रतिपाताभ्यां तद्विशेषोऽवगम्यताम् ॥७॥
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ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है । इन दोनोंमें विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा भेद जानना चाहिए । अर्थात् ऋजुमतिकी अपेक्षा विपुलमति मन:पर्ययज्ञानं अधिक विशुद्धियुक्त है, ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान होकर छूट भी जाता है, किन्तु विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान अप्रतिपाती है, छूटता नहीं. है, किन्तु उस जीवके उसी भवमें केवलज्ञान उत्पन्न होता है ॥७॥
विशेषार्थ-दूसरेके मनकी बातके जाननेवाले ज्ञानको मनःपर्ययज्ञान कहते हैं । इसके दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुल -
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