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तृतीय अध्याय
कहते हैं। जीव-अजीव आदि छह द्रव्योंके, सप्त तत्त्वोंके और वन्ध-मोक्षके वर्णन करनेवाले अनुयोगको द्रव्यानुयोग कहते हैं। आगम, स्मृति, पुराण, श्रुति, सूत्र, शास्त्र आदिके ज्ञानको श्रुतज्ञानके ही अन्तर्गत जानना चाहिए। जैन तत्त्वज्ञानका सर्वकथन नयवादके आश्रयसे किया गया है, इस दृष्टिसे उसे स्याद्वाद कहा जाता है। जो पदार्थ द्रव्यदृष्टिसे नित्यरूप है; वही पर्याय-दृष्टिसे अनित्यरूप है, इस आपेक्षिक कथनको ही स्याद्वाद कहते हैं । इसी का दूसरा नाम अनेकान्तवाद है।
.. अवधिज्ञानका स्वरूप देवनारकयो यस्त्ववधिर्भवसम्भवः । . पड्विकल्पश्च शेषाणां क्षयोपशमलक्षणः ॥६॥ . देव और नारकी जीवोंके तो अवधिज्ञान भवके निमित्तसे ही उत्पन्न होता है, उसे बाह्य अन्य कारणोंकी अपेक्षा नहीं होती है । मनुष्य और तिर्यच्चोंके जो अवधिज्ञान होता है वह क्षयोपशमके निमित्तसे होता है और उसके छह भेद होते हैं- १ अनुगामी, २ अननुगामी, ३ वर्धमान, ४ हीयमान, ५ अवस्थित और ६ अनवस्थित ॥६॥ . . ' विशेषार्थ-जिस ज्ञानके द्वारा भूत-भविष्यत् कालकी सीमित बातोंको तथा दूर-क्षेत्रकी परिमित वस्तुओंको जान सके, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। वह अनुगामी आदिके भेदसे छह प्रकारका होता है। उनका स्वरूप इस प्रकार है-भवान्तरमें साथ जानेवाले अवधिज्ञानको अनुगामी कहते हैं। भवान्तरमें साथ नहीं जानेवाले