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जैनधर्मामृत ज्ञान स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियोंसे तथा मनसे उत्पन्न होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थकी मनके द्वारा उत्तरोत्तर विशेषताओंके जाननेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं, समस्त शास्त्रज्ञान इसी श्रुतज्ञानके अन्तर्गत जानना चाहिए। देशान्तरित (दूरदेशवर्ती), कालान्तरित ( भूत-भविष्यत्कालवर्ती ) और सूक्ष्म पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादासे जाननेवाले ज्ञानको . अबधि ज्ञान कहते हैं। दूसरे व्यक्तिके द्वारा मनसे विचारी गई बातके जान लेनेको मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। त्रिलोक
और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोंके हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जाननेको केवलज्ञान कहते हैं।
. मतिज्ञानका स्वरूप अवग्रहादिभिर्भेदैर्ववाद्यन्तर्भवैः परैः। .
पत्रिंशत्रिशतं प्राहुर्मतिज्ञानं प्रपञ्चतः ॥ अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तथा बहु, बहुविध आदि वारह भेदोंके विस्तारसे मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस ३३६ भेद कहे गये हैं ॥४॥
विशेपार्थ-इन्द्रियोंका पदार्थके साथ साक्षात्कार होने पर उसका जो ग्रहण होता है, उसे अवग्रह कहते हैं। जैसे किसीको दूरसे आता हुआ देखकर यह जानना कि मनुष्य आ रहा है। तदनन्तर यह मनुष्य दक्षिणी है कि उत्तरी है, इस प्रकारसे विशेष जाननेकी जो इच्छा होती है, उसे ईहा कहते हैं। तदनन्तर उसके आकार-प्रकार, बात-चीत आदिके द्वारा यह निश्चय करना कि यह उत्तरी ही है, इसे अवाय कहते हैं । तथा अवायसे निश्चय की गई वातके आगामी कालमें नहीं भूलनेको धारणा कहते हैं। ये चारों