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________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार-परिचय जैनधर्मामृतमें इस ग्रन्थसे ३० पद्य चौदहवें अध्यायमें संग्रह किये - गये हैं। २. समन्तभद्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रने इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका सूत्र-शैलीमें संक्षिप्त वर्णन करते हुए श्रावक धर्मका विस्तारसे वर्णन किया है, जो परवर्ती श्रावकाचारोंके लिए आधारभूत सिद्ध हुआ है। समग्र .. ग्रन्थमें १५० पद्य हैं, जिन्हें संस्कृत टीकाकार प्रा० प्रभाचन्द्रने और परवर्ती विद्वानोंने विषय विभागकी दृष्टि से सात अध्यायोंमें विभक्त किया है, जो कि इस प्रकार है प्रथम परिच्छेद-सम्यग्दर्शनका वर्णन श्लोक संख्या ४१ द्वितीय- , सम्यग्ज्ञानका , तृतीय , सम्यक्चारित्र और पंचाणुव्रतोंका वर्णन , २० चतुर्थ , तीन गुणवतोंका वर्णन , २४ पञ्चम , चार शिक्षाव्रतोंका वर्णन षष्ठ , समाधिमरणका वर्णन , १४ सप्तम . , श्रावकके ११ पदों या प्रतिमाओंका वर्णन , १५ श्लोक १५० -- रत्नकरण्ड-श्रावकाचारको वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरितमें समन्तभद्र और देवनन्दिके पश्चात् एक अन्य योगीन्द्रकी कृति कहा है, ' उससे पूर्वकालीन ग्रन्थका कोई उल्लेख नहीं मिलता, आप्तके सम्बन्धमें समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसासे रत्नकरण्डकारका मत कुछ भिन्न है, तथा इसके उपान्त्य पद्यमें श्लेष रूपसे अकलंक, विद्यानन्दि और सर्वार्थसिद्धिका उल्लेख किया गया प्रतीत होता है, इन आधारोंपर डॉ. हीरालाल व कुछ अन्य विद्वान् इसे प्राप्तमीमांसाकारकी व अकलंक और विद्यानन्दिके काल (८ वीं शती) से पूर्वकी रचना स्वीकार नहीं करते। किन्तु दरबारीलाल
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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