SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य ३. तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं । -सूत्रकृतांग १२६।२३ तपो मे सर्वोत्तम तप है-ब्रह्मचर्य। बंभचेरं उत्तमतव-नियम-णाण दंसणचरित्त-सम्मत्त-विणयमूलं । -प्रश्नव्याकरण २।४ ब्रह्मचर्य-उत्तम तप, नियम, ज्ञान, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। जंमि य भग्गंमि होइ सहसा सव्वं भग्गं....। जंमि य आराहियंमि आराहियं वयमिणं सव्वं । -प्रश्नव्याकरण २।४ एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सब गुण नष्ट हो जाते है। एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर अन्य सब शील, तप विनय आदि व्रत आराधित हो जाते है । ४. अणेगा गुणा अहीणा भवति एक्कंमि बंभचेरे । -प्रश्नव्याकरण २१४ एक ब्रह्मचर्य की साधना करने से अनेक गुण स्वय प्राप्त (अधीन) हो जाते है। ५. स एव भिक्खू, जो सुद्ध चरति बंभचेरं । -प्रश्नव्याकरण २१४ जो शुद्धभाव से ब्रह्मचर्य पालन करता है, वस्तुत. वही भिक्षु है । ५०
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy