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संयम
जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ।।
-सूत्रकृतांग १।१६ कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पापवृत्तियों से सुरक्षित रखे।
चउन्विहे संजमेमणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे ।
-स्थानांग ४॥२ संयम के चार रूप हैंमन का संयम, वचन का संयम, शरीर का संयम और उपधिसामग्री का संयम । चारों प्रकार का मंयम ही सम्पूर्ण संयम है। गरहा मंजमे, नो अगरहा संजमे ।
-भगवती १९ गर्दा (पापों के प्रति घृणा करके आत्मा की निंदा करना) संयम
है, अगर्दा संयम नहीं है। ४, भोगी भोगे परिच्चयमाणे महाणिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ ।
-भगवती ७७ १६४