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सदा चार
१५.
१६.
१७.
जहा खरो चंदणभारवाही,
भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण होणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए ||
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- आव० नि० १००
चन्दन का भार उठानेवाला गधा सिर्फ भार ढोनेवाला है, उसे चन्दन की सुगन्ध का कोई पता नही चलता । इसीप्रकार चारित्रहीन ज्ञानी सिर्फ ज्ञान का भार ढोता है । उसे सद्गति प्राप्त नही होती ।
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हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड़ढो, धावमाणो अ अंधओ ॥
सजोगसिद्धीs
फलं वयंति,
न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अ य पंगू यवणे समिच्चा, ते सपउत्ता नगरं पविट्ठा ||
आव० नि० १०१
आचारहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है, और ज्ञान हीन आचार । जैसे वन में अग्नि लगने पर पंगु उमे देखता हुआ और अन्धा दौडता हुआ भी आग से बच नही पाता, जलकर नष्ट हो जाता है ।
आव० नि० १०२
योग - सिद्धि (ज्ञान क्रिया का सयोग ) ही फलदायी (मोक्ष रूप फल देनेवाला) होता है । एक पहिए स कभी रथ नही चलता । जैसे अन्ध और पगु मिलकर वन के दावानल से पार होकर नगर में सुरक्षित पहुंच गए, इसी प्रकार साधक भी ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मुक्ति लाभ करता है ।