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________________ सत्संग ८७ एगागिस्स हि चित्ताई विचित्ताइखणे खणे । उपज्जति वियंते य वसेवं सज्जणे जणे ॥ - बृहत्कल्पमाष्य ५७१६ एकाकी रहनेवाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न एवं विलीन होते रहते है, अतः सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है। जह कोति अमयरुखो विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। ण चइज्जइ अल्लीतु, एवं सो खिसमाणो उ॥ बृहत्कल्पमाष्य ६०६२ जिस प्रकार जहरीले कांटोंवाली लता से वेष्टित होने पर अमृत-वृक्ष का भी कोई आश्रय नही लेता, उसी प्रकार दूसरों को तिरस्कार करने और दुर्वचन कहनेवाले विद्वान् को भी कोई नही पूछता। ६. अलसं अणुबद्धवेरं, सच्छंदमती पयहीयव्वो। -व्यवहारभाष्य ११६६ आलसी, वैर विरोध रखनेवाले, और स्वेच्छाचारी का साथ छोड़ देना चाहिए। सुजणो वि होइ लहुओ, दुज्जण संमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया, होदि लहू मडय संसिट्ठा । -भगवतीआराधना ३४५ दुर्जन की सगति करने से सज्जन का भी महत्व गिर जाता है, जैसे कि मूल्यवान् माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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