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जिनशासन-शिरोमणि भाचार्य भद्रबाहु ७५ गण गोदास मुनि से सम्बन्धित था। गोदास मुनि आचार्य भद्रबाहु के प्रथम शिष्य थे। गौदास गण की प्रमुखत चार शाखाए थी। उनमे ताम्रलिप्तिका, कोटिवपिका एव पुअवधिका-इन तीन शाखाओ की जन्मस्थली बगाल थी। ताम्रलिप्ति, कोटिवर्प एव पुडवर्धन-ये तीनो वगाल की राजधानिया थी। गोदासगण की तीनो शाखाओ से इन राजधानियो का नाम-साम्य भद्रवाहु के सघ का वगाल भूमि से नकट्य सूचित करता है । अत विद्वानो का पुष्ट अनुमान है-भद्रबाहु विशाल श्रमण सघ के साथ दुष्काल की विकट वेला मे कुछ समय तक वगाल में रहे । आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है। परिशिष्ट पर्व मे लिखा है
इतश्च तस्मिन् दुष्काले, कराले कालरात्रिवत् ।
निर्वाहार्थ साधुसघस्तीर नीरनिधेर्ययौ ॥५॥ इन पद्यो के अनुसार कराल काल दुष्काल की घडियो मे श्रमण समुदाय जीवन-निर्वाहार्थ समुद्री किनारो पर पहुच चुका था।
ससघ भद्रबाहु उक्त कथन से दुष्काल के समय बगाल मे ही थे। सभवत इसी प्रदेश मे उन्होने छेद सूत्रो की रचना की। उसके बाद वे महाप्राण ध्यान साधना के लिए नेपाल पहुच गए। दुष्काल की परिसमाप्ति के समय भी वे नेपाल मे हीथे।
डा. हर्मन जैकोबी ने भद्रबाहु के नेपाल जाने की घटना का समर्थन किया है। जिन शासन-शिरोमणि आचार्य भद्रवाह के शामन-काल मे दो भिन्न दिशाओ मे बढती हुई श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के आचार्यों की नाम शृखला एक विन्दु पर आ पहुची थी। भद्रबाहु को दोनो ही परम्परा समान महत्त्व प्रदान करती है ।
कल्पसून स्थविरावली मे भद्रवाहु के चार शिष्यो का उल्लेख है (१) स्थविर गोदास, (२) स्थविर अग्निदत्त, (३) भत्तदत्त, (४) सोमदत्त । ये चार आचार्य भद्रबाहु के प्रमुख शिष्य थे । दृढ आचार का सबल उदाहरण प्रस्तुत करने वाले चार शिष्य उनके और भी थे। गृहस्थ जीवन मे वे राजगृह निवासी सम्पन्न श्रेष्ठी थे। बचपन के साथी थे। चारो ने ही आचार्य भद्रबाहु के पास राजगृह मे दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा स्वीकृति के बाद चारो मुनियो ने श्रुत की आराधना की एव विशेष साधना से अपना जीवन जोडा। निर्मम-निरहकारी, प्रियभापी, मितभापी, धर्मप्रवचन-प्रवण, करुणा के सागर इन मुनियो ने आचार्य भद्रवाहु से आज्ञा प्राप्त कर एकल विहारी की कठिनचर्या विशेष अभिग्रहपूर्वक स्वीकार की। प्रतिमा तप की साधना मे लगे। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक बार चारो मुनि राजगृह के वैभारगिरि पर आए। गोचरी करने नगर मे गए। लौटते समय दिन का तृतीय प्रहर सम्पन्न हो चुका था। दिन के तृतीय प्रहर के बाद भिक्षाटन एव गमनागमन न करने की प्रतिज्ञा के अनुसार एक मुनि गिरि गुफा के द्वार पर, दूसरा