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६६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
आज आगम का अभिन्न अंग बनी हुई हैं। साधुचर्या की महत्ता इन चूलिकाओ के माध्यम से समझी जा सकती है ।
आचार्य स्थूलभद्र के द्वारा दश पूर्व ग्रहण करने के बाद पाटलिपुत्र में आचार्य भद्रवाह के आदेश से यक्षा आदि साध्विया ज्येष्ठ भ्राता के दर्शनार्थं गयी थी। सिंह के रूप मे उन्हे पाकर डर गयी थी। अल्प समय के बाद ही उन्हें मुनि के रूप मे प्राप्त
प्रसन्न भी हुई थी। इसी प्रसग पर वहिनो ने भार्य स्थूलभद्र को श्रीक से सम्वन्धित यह सारा वृत्तान्त सुनाया था। मुनि श्रीयक के स्वर्गवास-सम्बन्धी सवत् का कोई उल्लेख उपलब्ध नही है । सम्भवत सभूतविजय के शासन काल मे ही मुनि श्रीयक की जीवनयात्रा सुखपूर्वक सम्पन्न हो चुकी थी ।
आचार्य सभूतविजय चतुर्थ श्रुतकेवली थे । वे ४२ वर्ष तक गृहस्थ जीवन मे रहे । सामान्य स्थिति मे ४० वर्ष तक उन्होने साधुचर्या का पालन किया । उनका आचार्यत्व - काल आठ वर्ष का था । ज्ञानरश्मियो से भव्य जनो का पथ आलोकित करते हुए सयम- सूर्य आचार्य सभूतविजय वी० नि० १५६ (वि०पू० ३१४) मे स्वर्गगामी बने ।
आधार-स्थल
१ पत्ते वासरते, तिण्णि मुणी तिव्बभवम उब्विग्गा । गिण्हति कमेणेए, अभिग्गहे दुग्गहसरूवे ॥६०॥ एगो सीहगुहाए, अन्नो दारुण विसाहिव सहीए । कूवफलयमि अन्नो, चाउम्मास ठिञोऽणसणो ॥ ६१ ॥
( उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृ० २३७)
२ अब्भुट्टिया मणाग, दुक्करकारीण सागय तुन्भ । आसासिया कमेण गुरुणा ता थूलभद्दोवि ॥ ६९ ॥
३ इदमामन्त्रण मन्त्रिपुत्रता हेतुक खलु ॥१३७॥ ४ उवउत्तेण गुरुणा, नाय पार न पाविही एसो ।
५ नेवालजणवए जह, राया पुव्वस्स साहुणो देइ । कवलरयण सयसहस्समोल्लमेसो तहि जाइ ॥ ८१ ॥
( उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृ० २३८)
(परिशिष्ट पर्व, सर्ग ८)
( उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृ० २३८ )
( उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृ० २३८)
६ ता त एय सोयसि, न उणो गुणरयणठाणमप्पाण | ता इय गए वि भयव, सभरसु पवित्तनियपर्याव ॥६०॥
( उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृ० २३९ )