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परिवा-पुगव आचार्य प्रभव ५१ देखा, कोई भी साथी वधा हुआ नही है। किसी का पर धरती पर चिपका नही है। अपने माथियो के हाथ-पैर पहले क्यो स्तम्भित हो गए थे ? इसका वैज्ञानिक समाधान भी उसे मिल गया था। वह और कुछ नही जग्ब की पावन अध्यात्म धारा की त्वरितगामी तरगो का तीव्रतम प्रभाव था। अणुशक्ति के प्रयोग से आन्दोलित वातावरण की भाति जम्बू की मद्य गामी एव दूरगामी सबल ज्ञानधारा केम्परा से स्तेनदल के अन्ततम मे एक विचित्र क्राति घट गई थी। प्रभव को अपने साथियो के हाथ-पैरो का स्तम्भन दिखाई दिया, पर यथार्थ में अध्यात्मतरगो से प्रभावित उनका मन इस पापकर्म को करने से पूर्णत अस्वीकृत हो चुका था।
प्रभव मयम मार्ग पर बटने को तत्पर हुआ। अपने अधिपति के इस महान् निर्णय को सुनकर समग्र स्तेनदल मे एक दूसरी क्राति और घट गई । दीप से दीप जल उठे। मन का पाप भस्म हो गया। समस्त साथियो ने नेता का अनुगमन किया। प्रभव ने अपने पूरे दल सहित वी०नि०१ (वि० पू०४६६) मे सुधर्मा के पास दीक्षा ग्रहण की।
परिशिष्ट पर्व के अनुसार प्रभव की दीक्षा नाचार्य जम्बू की दीक्षा से एक दिन बाद हुई। इस आधार पर दीक्षा-ज्येप्ठ आचार्य जम्व थे एव अवस्था-ज्येष्ठ आचार्य प्रभव थे। दीक्षाग्रहण काल में जम्ब की अवस्था १६ वर्ष की एव प्रभव की अवस्था ३० वर्ष की थी।
आचार्य जम्बू के वाद वी० नि०६४ (वि० पू० ४०६) मे प्रभव ने भाचार्यपद का दायित्व मम्भाला। भगवान महावीर की परम्परा मे प्रभव का क्रम तृतीय है।
स्तन सम्राट को महावीर सघ का उत्तराधिकार अवश्य मिला, पर सर्वज्ञत्व की मम्पदा उन्हे प्राप्त नहीं हो मकी।
महान् जैनाचार्यों में परिवाद-पुगव आचार्य प्रभव का स्थान भी बहुत ऊचा है। शय्यभव जैसे महान् अहकारी, निर्ग्रन्थ प्रवचन के घोर प्रतिद्वन्द्वी विद्वान् को भगवान महावीर के सघ मे दीक्षित कर देना उनकी प्रभावकता का सबल उदाहरण
श्रुतकेवली की परम्परा मे माघार्य प्रभव प्रथम थे। आचार्य प्रभव को द्वादशागी की उपलब्धि आचार्य सुधर्मा से प्राप्त हुई या जम्बू से इस प्रसग का कोई प्रामाणिक उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका है।
परम प्रभावी आचार्य प्रभव ३० वर्ष तक गृहस्थ जीवन मे रहे। सयमी जीवन के कुल ७५ वर्ष के काल मे ११ वर्ष तक आचार्य पद का वहन किया। चारित्य-धर्म की सम्यक् आराधना करते हुए १०५ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वी० नि० ७५ (वि० पू० ३६५) मे अनशन पूर्वक स्वर्गगामी बने।