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४० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
आचार्य सुधर्मा पचास वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहै । उन्हें तीस वर्ष तक भगवान की सन्निधि प्राप्त हुई। वीर निर्वाण के बाद वारह वर्ष का उनका छास्थ काल और आठ वर्ष का केवली काल है। उनके जीवन का पूरा एक शतक प्रभावक जैनाचार्यों की प्रलम्बमान शृखला मे प्रथम कडी है।
वैभारगिरि पर मासिक अनशन के साथ श्रमण सहस्राशु सुधर्मा वीर नि० २० (विक्रम पूर्व ४५०) मे देहवन्धन को तोडकर आत्मसाम्राज्य के अधिकारी बने।
प्राधार-स्थल
१ इचकारसवि गणहरा सवे उन्नयविसालफुलवसा। पावाइ मज्झिमाए समोसढा जन्नवाडम्मि १५६२॥
(मावश्यक नियुक्ति, मलयवृति, भाग २, पनाक ३११) २ हे इदभूई । गोमम । सागये मुत्ते जिणेण चितेइ। नामपि मे विणामइ अहवा को मन याणेइ ॥ १२॥
(आवश्यक नियुक्ति, मलयवृत्ति, भाग २, पत्राक ३१३) ३ जग्रन्थ द्वादशाङ्गी भवजलधितरी ते निपद्यात्रयेण ॥२॥
(अपापाकल्प विविध तीर्थकल्प, पृ० २५) ४ मम णव गणा एकाग्म गणधरा।
(आण ६ । २२) ५ परिणिन्वुया गणहरा जीवते नाय ए नव जणा: ।।६।।
(आवश्यक नियुक्ति, मलयवृत्ति, भाग २, पनाक ३३९) ६ आसीत्सुधर्मा गणभृत्सु तेषु श्री वर्धमानप्रभुपट्टधुर्यं ॥११॥
(पट्टावली समुच्चय, श्री महावीर पट्ट परम्परा, पृ० १२१) ७ अधुनकादशाग्यस्ति सुधर्मास्वामिभापिता ।।११४॥
(प्रमावक चरित, पताक ५८) ८ तत्सट्टे श्री सुधर्मा स्वामी पञ्चमगणधर प्रथमोदयस्य प्रथमाचार्यों बभूव । स च पचाशत्
(५०) वर्षाणि गृहे विशद्वाणि (३०) वीरसेवाया तत श्रीवीरनिर्वाणात् द्वादशवर्षाणि छास्थ्ये अण्टीवर्षाणि केवलित्वे सर्वायु शतमेक प्रपाल्य श्रीवीरात् विशतिवर्ष सिद्ध ॥
(पट्टावली समुच्चय, श्री गुरु पट्टावली, पनाक १६३)