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-२८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
श्री तुलसी के सतत श्रमदान से यह कार्य दिन-प्रतिदिन गतिशील है।
धार्मिक जगत् मे यह एक महान क्रातिकारी कार्य है। इतिहास के पृष्ठो पर इस युग की यह विशेप सस्मरणीय घटना होगी।
वीर निर्वाण के दो सहस्राब्दी के बाद पाच सौ वर्षों के धार्मिक इतिहास की मुख्य प्रवृति धर्मक्राति रही है। __ जैनाचार्यों के विशेष प्रयत्लो से पाच सौ वर्षों के इस काल मे अनेक प्रकार की नवीन प्रवृत्तियो का अभ्युदय हुआ। अत मैंने इस युग का नाम नवीन युग दिया है।
आचार्यों के काल-निर्णय मे एकमात्र आधारभूत प्राचीनतम महावीर-निर्वाण सम्वत् का उपयोग किया गया है और इसके साथ विक्रम सम्वत् का उल्लेख भी है। दो सम्वत् का उपयोग कर लेने के बाद ईस्वी सन्, शक सम्वत् आदि का उल्लेख आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ। अत इनका उपयोग कही-कही हुआ
__वीर निर्वाण के बाद आचार्य सुधर्मा से लेकर आचार्य देवद्धिगणी तक आचार्यों की परम्परा पट्टावलियो के अनुसार कई रूपो मे उपलब्ध है। उनमे से दशाश्रुतस्कन्ध स्थविरावली गुरु-शिष्य क्रम की परम्परा मानी गई है। शेष पट्टावलियाप्राय युग-प्रधानाचार्यो की और वाचक वण या विद्याधर वश की परम्पराए है । विभिन्न पट्टावलियो मे तीन पट्टावलिया नीचे दी जा रही हैं ।
दशाश्रुतस्कन्ध स्थविरावली १ आचार्य सुधर्मा १३ आचार्य वज्र २५ आचार्य कालक २ , जम्बू
१४ ,, रथ २६ , सपलितभद्र ३ , प्रभव
१५ , पुष्यगिरि २७ , वृद्ध ४ , शय्यभव
१६ , फल्गुमित्र २८ , सघपालित ५ , यशोभद्र
१७ , धनगिरि २६ ,, हस्ती ६ ,, सभूतविजय-भद्रबाहु १८ , शिवभूति
, धर्म ७. , स्थूलभद्र १६ , भद्र
" सिंह ८ , सुहस्ती
नक्षत्र
, धर्म ६ , सुस्थित-सुप्रतिबद्ध २१ , रक्ष
,, साडिल्य १० , इद्रदिन्न
, नाग
३४ , देवद्धिगणी ११ ,, दिन्न
२३ ,, जेहिल १२ ,, सिंहगिरि
२४ , विष्णु