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________________ २६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य क्रान्ति का तृतीय चरण तीन सौ वर्षों के बाद राजस्थान (मेवाड ) से क्राति की एक और आधीउठी । यह क्राति आगमिक आधार पर स्थानक तथा दान-दया-सम्बन्धी आचारमूलक वैचारिक क्राति थी । इस क्राति के जन्मदाता राजस्थान ( मारवाड) के मपूत आचार्य भिक्षु थे । हर क्रातिकारी मानव के जीवन मे सघर्ष ओर तुफान आते है । क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । क्रातिकारी आचार्य भिक्षु के पथ मे भी नाना प्रकार की बाधाएं उपस्थित हुई । स्थान न मिलने के कारण वे श्मशान भूमि मे रहे । पाच वर्ष तक उन्हे पर्याप्त भोजन भी नही मिला, पर किसी प्रकार के अभाव की एव सुख-सुविधा की चिन्ता किए बिना वे अविरल गति से अपने निर्धारित पथ पर बढते रहे एव निर्भीक वृत्ति से सत्य का प्रतिपादन करते रहे । आचार्य भिक्षु मे किसी नये सम्प्रदाय के निर्माण का व्यामोह नही था । पर वे जिस पथ का अनुसरण कर रहे ये उस पर अन्य चरणो को वढते हुए देखा तब उन्होने मर्यादाए बाधी, सघ वना । इम सघ का नाम श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ है। तेरापन्थ का स्थापना दिवस वी० नि० २२८७ ( वि० स० १८१७ ) है । काति युग के तृतीय चरण की निष्पत्ति तेरापन्थ के रूप में उपलब्ध हुई । वर्तमान में तेरापन्थ का इतिहास लगभग २१५ वर्षो की अवधि में समाहित है । इस स्वल्प समय मे भी तेरापन्थ धर्म सघ ने जैन धर्म की विभिन्न शाखाओं के समक्ष अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है और अपनी सगठनात्मक नीति से विश्व का ध्यान विशेष आकृष्ट किया है । तेरापन्थ परम्परा मे नो आचार्य हुए है । उनमे सर्वप्रथम अध्यात्म के सजग प्रहरी आचार्य भिक्षु थे । उन्होने इस तेरापन्थ महावृक्ष का वीज वपन किया । पूज्य श्री भारमल्ल जी और रायचन्द जी ने उसे अकुरित किया । ज्योतिर्धर जयाचार्य के समुचित सरक्षण में उसका पल्लवन हुआ । महाभाग मघवागणी ओर माणकगणी की शीतल छाया तथा डालगणी के तेजोमय व्यक्तित्व का समुचित ताप पाकर वह खिला और कमनीय कलाकार कालूगणी के श्रम सिंचन से वह फला । वर्तमान मे युग-प्रधान आचार्य श्री तुलसी के स्वस्थ और सुखद नेतृत्व में यह बहुमुखी विकास पा रहा है । नवीन युग और जैनाचार्य नवीन युग मे आचार्य हीरविजय जी, आचार्य वज्रसेन, चतुर्थ दादा सज्ञ आचार्य जिनचन्द्र आचार्य जिनवल्लभ आदि जैनाचार्यों का उल्लेख है जो नई क्राति के जन्मदाता नही थे पर मुगल सम्राटो को प्रतिबोध देने का तथा उन्हे जैन धर्म के अनुकूल बनाने का प्रभावी कार्य उन्होने अवश्य किया था । इस युग मे
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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