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________________ १६. शास्त्र-विशरद आचार्य विजयधर्म तपागच्छीय आचार्य विजयधर्म सूरि जी प्रख्याति प्राप्त आचार्य थे। उनका जन्म वी०नि० २३९४ (वि० १९२४) मे एक सम्पन्न परिवार मे हुआ। वालक का नाम मूलचन्द था। पढने की रुचि वालक मे विल्कुल नही थी। प्रति व्यक्ति के मानस घटक परमाणु भिन्न-भिन्न होते हैं। घोडे को तालाव पर ले जाया जा सकता है पर बिना रुचि के उसे पानी नही पिलाया जा सकता। पिता ने वालक मूलचन्द को व्यापारी वनाना चाहा पर उसका मन सट्टा करने मे फस गया था। पिता भी अपने बच्चे की इस प्रवृति से चिन्तित थे। 'सत्सगति किं न करोति पुसाम्' दुनिया का कौन-सा भला कार्य सत्सगति के द्वारा नहीं होता। पतित से पतित व्यक्ति सत्सगति से पावन बन जाते है । भोग्य से मूलचन्द बालक को सन्तो का पावन सान्निध्य मिला। विचारो की धारा वदली। सट्ट के जीवन से मुक्त होकर वालक वैरागी बना और वह वी० नि० २४१३ (वि० १९४३) मे मुनि श्री वृद्धिचन्द जी के पास दीक्षित हुआ। साधु-जीवन का नाम धर्मविजय रखा गया। नए जीवन का प्रारम्भ होते ही अध्ययन के प्रति रुचि बढ गयी। विद्या से घृणा करने वाले का नाम धुरन्धर विद्वानो की श्रेणी मे आने लगा। उनको वी०नि० २४३४ (वि० १९६४) मे काशी नरेश के सभापतित्व में अनेक विद्वानो के बीच 'शास्त्र-विशारद' की उपाधि से अलकृत कर जैनाचार्य के पद से विभूषित किया गया। ___आचार्य बनने के बाद धर्मविजय के स्थान पर वे विजयधर्म सूरि जी के नाम से सम्बोधित होने लगे। धर्मप्रचारार्थ गुजरात, विहार, वगाल, बनारस, इलाहावाद और कलकत्ता आदि क्षेत्रो मे विहरण किया। अनेक विद्वानो ने उनसे जैन धर्म की दीक्षा स्वीकार की। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव विदेशो तक भी पहुचा । कई विदेशी विद्वान उनके निकट मित्र की तरह थे। उद्भट्ट मनीषी हर्मन जेकोबी तक ने उनके व्यक्तित्व की मुक्तकठ से प्रशसा की।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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