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३७० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
थी। आचार्य भिक्षु ने लौकिक दान-दया की व्यवस्था को कर्तव्य व सहयोग वताकर मौलिक सत्य का उद्घाटन किया। साध्य-साधन के विषय मे भी आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण स्पष्ट था। उनके अभिमत से शुद्ध साधन के द्वारा ही साध्य की प्राप्ति सभव है । रक्त-सना वस्त्र कभी रक्त से शुद्ध नहीं होता, हिंसा प्रधान प्रवृत्ति कभी अध्यात्म के पावन लक्ष्य तक नही पहुचा सकती।
दुनिया मे नए चिन्तन का प्रारम्भिक स्वागत प्राय विरोध से होता है। आचार्य भिक्षु के जीवन मे भी अनेक कष्ट आए । पाच वर्ष तक पर्याप्त भोजन भी नहीं मिला। स्थानाभाव की असुविधाओ से भी उन्हे जूझना पडा। स्थानकवासी सम्प्रदाय से पृथक् होकर सबसे पहला विश्राम श्मशान भूमिका मे एव प्रथम चातुमर्मास केलवा की अधेरी कोठरी मे उन्होने किया था। आचार्य भिक्षु महान् कप्टसहिष्णु, दृढसकल्पी एव स्वलक्ष्य के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित थे। किसी भी विरोध की चिन्ता किए बिना वे कुशल चिकित्सक की भाति सत्य की कटु घूट जनता को पिलाते रहे और आगम पर आधारित साधना का रूप अनावृत करते रहे। ____ आचार्य भिक्षु की सत्यस्पर्शी, स्पष्टोक्तिया, गम्भीर तत्त्व का प्रतिपादन, सार्वभौम अहिंसा का सदेश उनके अन्तर्मुखी विराट् व्यक्तित्व का सूचक था। आचार्य भिक्षु के साहित्य को पढकर आधुनिक विद्वान् उन्हे हेगल और 'काट' की तुला से तौलते है।
आगमनिष्ठ, सत्य के अनुसधित्सु आचार्य भिक्षु ने पन्चीस वर्ष की अवस्था मे श्रमण दीक्षा ग्रहण की। वे ७७ वर्ष तक एकनिष्ठ होकर जैन धर्म की प्रभावना मे प्रवृत्त रहे। उनका स्वर्गवास सिरियारी मे वी० नि० २३३० (वि० १८६०) भाद्रपद शुक्ला १३ को नीदिवसीय अनशन के साथ हुआ।