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६ इन्द्रिय-जयी आचार्य जयमल्ल
स्थानकवासी परम्परा के प्रभावक आचार्यों की गणना में आचार्य जयमल्ल जी का नाम बहुत चचित रहा है। वे तपोनिष्ठ, स्वाध्याय-प्रेमी, जितेन्द्रिय एव महान् वैरागी साधक थे। उनका जन्म राजस्थानान्तर्गत लाम्बिया ग्राम मे हुमा। वे बीसा ओसवाल थे एव गोत्र से समदडिया महता थे। पिता का नाम मोहनदाम जी, माता का नाम महिमादेवी एव अग्रज का नाम रिडमल जी था। वाईस वर्ष की अवस्था मे जयमल जी का विवाह कुमारी लक्ष्मी के साथ हुआ।
व्यापारिक सम्बन्धो के कारण एक बार जयमल्ल जी मेडता गए । स्थानकवासी परम्परा के आचार्य भूधर जी से उन्होने सुदर्शन सेठ का व्याख्यान सुना। ब्रह्मचर्य व्रत की अतिशय महिमा का प्रभाव उनके मानस मे अकित हो गया। उन्होने जीवन की गहराइयो को झाका । भोग-विलास को निस्सार समझ वे आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा मे प्रतिवद्ध हो गए । उनके हृदय मे वैराग्य की तरगे तीव्रगति से तरगित हुई। अन्तमुखी प्रवृत्ति की प्रबलता ने जीवन की धारा को बदला, वे सयम पथ पर बढने के लिए तत्पर बने । उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मी गोना लेकर ससुराल लौट ही नही पायी थी। विवाह के अभी छह मास ही सम्पन्न हुए थे। जयमल्ल जी वी०नि० २२५७ (वि०१७८७) अगहन कृष्णा द्वितीया के दिन आचार्य भूधर जी के पास दीक्षित हो गए । ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में उनका विवाह हुआ। कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को उन्होने उपदेश सुना एव मार्ग शीर्ष कृष्णा द्वितीया के दिन वे सयम मार्ग में प्रविष्ट हो गए। धर्मपत्नी लक्ष्मी नाम से लक्ष्मी और गुणो से भी लक्ष्मी ही थी। वह अपने पति के साथ सयम धर्म को स्वीकार कर अलौकिक लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुई । जयमल्ल जी का जन्म वी० नि०२२३५ (वि० १७६५) है । दीक्षा लेने के बाद उन्होने तप साधना को अपने जीवन का प्रमुख अग बनाया। तेरह वर्ष तक निरन्तर एकान्तर तप किया। दीक्षा गुरु आचार्य भूधर जी के स्वर्गारोहण के पश्चात् सो कर नीद न लेने का महासकल्प लिया एव पच्चास वर्ष तक पूर्ण जागरूकता के साथ इस दुर्धर सकल्प को निभाया। "निद्दच न बहु मन्नेज्जा" भगवान् महावीर की वाणी का यह पद्य उनकी जीवन