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६ धर्मध्वज आचार्य धर्मसिह जी
धर्ममूर्ति आचार्य धर्मसिंह जी स्थानकवासी परम्परा के प्रभावी आचार्य थे। वे। उत्तर गुजरात के सखानिया ग्राम के थे। उनके पिता का नाम रेवाभाई एव माता का नाम रम्भा था। श्रीमाली वैश्य परिवार मे उनका जन्म हुआ था। उनकी स्मरण-शक्ति विलक्षण थी। एक सहस्र श्लोक दिन-भर मे कठस्थ कर लेना उनकी बुद्धि को वरदान था। वे अवधानकार भी थे। दो हाय एव दो पैगे के सहारे चार कलमो से एक-साथ लिख लेना उनकी विरल विशेपता थी।
बचपन से ही उनका सहज आकर्षण धर्म के प्रति था । पन्द्रह वर्ष की छोटीसी अवस्था मे ही वे रत्नसिंह जी के शिष्य यतिदेव जी के पास पिता के साथ दीक्षित हुए। आगमो का गम्भीरता से उन्होने अध्ययन किया । बत्तीस आगमो पर टव्वे लिखे । जैन साहित्य को उनका यह सबसे महत्त्वपूर्ण अनुदान था। उनके टब्बे दरियापुरी टब्बो के नाम से प्रसिद्ध है। ___आगम-मर्मज्ञ धर्मसिंह जी यथार्थ मे धर्मसिंह सिद्ध हुए। वे बहुत निर्भीक साधक थे। लोकाशाह की धर्मक्रान्ति ने उनके मन मे चिनगारी सुलगा दी थी। उनके द्वारा प्रस्तुत नये पथ पर चलने के लिए दीक्षागुरु से अलग होते समय यक्ष के मन्दिर मे रहकर धर्मसिंह जी को अत्यन्त कडी परीक्षा देनी पड़ी थी। पर उनके चरण अपने लक्ष्य पर अविचल थे।
उन्होने वी०नि० २१६२ (वि० १६९२) मे दृढता के साथ अहमदावाद की जनता के बीच लोकाशाह की नीति का बिगुल बजा दिया। उनके पास तलस्पर्शी शास्त्रीय अध्ययन था और वाणी मे ओज था। सहस्रो चरण उनकी ओर बढते चले आए।
श्रमण जीवराज जी ने लोकाशाह के मत का अनुगमन करते हुए सयम-साधना हेतु नियमोपनियम वनाए और आचार्य धर्मसिंह जी ने उन्हे दृढता प्रदान की।
उनका विहरण-क्षेत्र मुख्यत गुजरात और सौराष्ट्र था। तैतालीस वर्ष तक सयम पर्याय का पालन कर वी० नि० २१६८ (वि० १७२८) वे स्वर्गवासी बने।
लोकाशाह की धर्मक्रान्ति को प्रज्ज्वलित करने वाले वे महान् आचार्य थे एव तृतीय क्रियोद्धारक थे।