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१ वाचोयुक्ति-पटु आचार्य हीरविजय
हीरविजय जी तपागच्छ के आचार्य थे। वे पालनपुर के ओसवाल थे। उनका जन्म वी० नि० २०५३ (वि० १५८३) मे हुआ। उनके पिता का नाम कुरा और माता का नाम नाथीवाई था। उन्होने वी०नि० २०६६ (वि० १५६६) मे तपागच्छ के आचार्य विजय सूरि के पास श्रमण दीक्षा ली। धर्मसागर मुनि के साथ नैयायिक ब्राह्मण पडित से न्यायविद्या का विशेष अध्ययन किया। उन्हे वी० नि० २०७७ (वि० १९०७) मे पडित की उपाधि तथा वी० नि० २०७८ (वि० १६०८) मे "वाचक' की उपाधि प्राप्त हुई । मुनि-जीवन का उनका नाम हरिहर्ष था। वे वी० नि० २०८० (वि० १६१०) मे आचार्य बने । आचार्य-काल का नाम हीरविजय हुआ।
आचार्य विजयदान सूरि के स्वर्गवास के बाद उन्होने वी० नि० २१०१ (वि०१६३१)मे तपागच्छ का दायित्व सम्भाला। पुष्प-परिमल की तरह आचार्य हीरविजय जी के सद्गुण मडित व्यक्तित्व की प्रभा सर्वत्र प्रसारित होने लगी।
एक वार मुगल सम्राट अकबर का आमन्त्रण मिलने पर हीरविजय जी गान्धार से फतेहपुर सिकरी आए, उस समय उन्हे भारी राजसम्मान प्राप्त हुआ था।
माचार्य हीरविजय जी के प्रभाव से मुगल बादशाह ने पर्युषण पर्व पर शिकार न करने की प्रतिज्ञा ली तथा राज्य मे अमारि की घोषणा करवायी।
अकबर की सभा का उद्भट्ट विद्वान् अब्दुल फजल भी हीरविजय जी के व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ। उसके निवेदन पर एक बार अकवर ने हीरविजय जी को सभा मे आमन्त्रित किया और उनके आने पर सभासदो सहित अकवर ने खडे होकर उनका सम्मान किया था।
हीरविजय जी को वी०नि० २११० (वि० १६४०)मे जगद्गुरु की उपाधि मिली। विजयसेन हीरविजय जी के शिष्य परिवार मे सबसे प्रमुख शिष्य थे। उन्हे अहमदाबाद मे हीरविजय जी ने आचार्य पद से विभूषित किया था।
अपने युग मे हीरविजय जी ने मुगल सम्राट अकबर को प्रतिबोध देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इससे जैन शासन की प्रभावना हुई। उनका स्वर्गवास वी० नि० २१२२ (वि० १६५२) मे हुआ था।