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३३. जनवल्लभ आचार्य जिनवल्लभ
जिनवल्लभ सूरि जनवल्लभ सूरि थे । वे विक्रम की बारहवी शताब्दी के आचार्य थे । उनका जन्म आशिका नगरी मे हुआ ।
बचपन से ही उनके मस्तक पर से पिता का साया उठ गया था । मा के सरक्षण में वे रहते थे और चैत्यवासी जिनेश्वर सूरि के पास अध्ययन करने जाते । अध्ययन करते-करते वालक के मन मे वैराग्य हुआ और उन्ही के पास दीक्षा ग्रहण की।
जिनवल्लभ की प्रतिभा से जिनेश्वर सूरि जी पहले से ही प्रभावित थे । - उन्होने अपना उत्तराधिकारी बनाने हेतु विशेष प्रशिक्षण देने के लिए वालमुनि जिनवल्लभ को श्रमण जिनेश्वर के साथ नवागी टीकाकार अभयदेव सूरि के पास भेजा। वे दोनो गुरु का आशीर्वाद पाकर अणहिल्लपुर पाटण पहुचे | अभयदेव सूरि भी स्फूर्त मनीपा के धनी जिनवल्लभ जैसे योग्य शिष्य को पाकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होने थोडे ही समय मे जिनवल्लभ को सिद्धान्त का परगामी विद्वान् बना दिया । एक पडित के सहयोग से ज्योतिषशास्त्र पर भी जिनवल्लभ मुनि जी ने अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था ।
अध्ययन की परिसमाप्ति पर वे पुन अपने दीक्षागुरु जिनेश्वर सूरि से मिलने गए पर अब वे उनके नही रहे थे। जिनवल्लभ ने चैत्यवास को स्पष्ट अस्वीकार कर दिया और अभयदेव सूरि के पास आकर उन्होने नवीन दीक्षा ग्रहण की।
जिनवल्लभ मुनि को योग्य समझते हुए भी किसी विशेष परिस्थितिवश अभयदेव सूरि ने उन्हे आचार्य पद पर नियुक्त न कर वाचनाचार्य के रूप मे स्वतंत्र विहरण करने का आदेश दे दिया। जिनवल्लभ मुनि वहुत लम्बे समय तक पाटण के आसपास घूमते रहे ।
एक बार वे चित्तोड गए । प्रारम्भ मे उनका विरोध हुआ । धीरे-धीरे उनकी विद्वत्ता का प्रभाव जमने लगा और उनके अनेक अनुयायी बने । धारा नगरी के राजा नरवर्मदेव पर भी उनका अच्छा प्रभाव था। वी० नि० १६३७ (वि० ११६७) आपाढ शुक्ला ७ को देव भद्राचार्य ने पाटण मे जिनवल्लभ सूरि को अभयदेव सूरि के स्थान पर आचार्य रूप में नियुक्त किया ।