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२४८ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
प्रबधकोश के अनुसार आचार्य हरिभद्र ने १४४० ग्रथो की रचना की थी। पुरातन प्रवध-सग्रह के अनुसार उन्होने १४०० ग्रथो की रचना की थी। आज विद्वानो की दृष्टि मे ग्रथो की यह सख्या सदिग्ध है।
आचार्य हरिभद्र का समय प्राचीन विद्वानो के अनुसार वी०नि० १००० से १०५५ (वि० ५३० से ५८५) था। जिनविजय जी ने उनका समय वि० ७५७ से ८७ निर्णीत किया है। इस आधार पर प्राचीन समय वि० की छठी शताब्दी और वर्तमान समय वि० की वी शताब्दी है।
जीवन के सध्या काल में उन्होने अनशन की स्थिति को स्वीकार किया। अध्यात्म भाव मे लीन होकर वे परम समाधि के साथ स्वर्ग को प्राप्त हुए।"
आधार-स्थल
परिभवनमतिमहावलेपात् क्षितिसलिलाम्बरवासिना वुधानाम् । अवदारणजालकाधिरोहण्यपि स दधौ त्रितय जयाभिलापी ॥९ स्फुटति जठरमन्त्रशास्त्रपूरादिति स दधावुदरे सुवर्णपट्टम । मम सममतिरस्ति नैव जम्बूक्षितिवलये वहते लता च जम्ब्वा ॥१०॥
(प्रभा० चरित, पनाक ९२) २ दिवसगणमनर्थक स पूर्वस्वकमभिमानकदर्थ्यमानमूर्ति ।। अमनुत स ततश्च मण्डपस्थ जिनभटसूरिमुनीश्वर ददर्श ॥३०॥
___ (प्रभा० चरित, पत्रांक ६४) ३ गुरुरवददथागमप्रवीणा यमि-यतिनीजनमौलिशेखरश्री । मम गुरुभगिनी महत्तरेय जयति च विश्रुतजाकिनीति नाम्नी ॥४॥
(प्रभा० च०, पनाक ६४) ४ अभणदथ पुरोहितोऽनयाह भवभवशास्त्रविशारदोऽपि मूर्ख । अतिसुकृतवशेन धर्ममाना निजकुलदेवतयेव बोधितोऽस्मि ॥४२॥
(प्रभा० चरित, पनाक ६४) ५ प्रात श्रीहरिभद्रसूरिभि शिष्यकबन्धो दृष्ट कोप ।
(प्रवधकोश, पनाक २५) ६ पुन सङ्घ मील्य प्रायश्चित्त कृतवन्त । तदनु 'समरादित्यचरित' वैराग्यामृतमय चक्रु ।
(पुरा०प्र० स०, पृ० १०५) अतिशयहृदयाभिरामशिष्यद्वयविरहोमिभरेण तप्तदेह । निजकृतमिह सव्यधात् समस्ता विरहपदेन युता सता स मुख्य ॥२०६।।
(प्रभा० चरित, पत्राक ७४)