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२४२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
रखेगा। आदेश प्राप्त होते ही विद्यार्थी प्रतिमा पर चरण-निक्षेप करते हुए चले गए। हस और परमहंस के सामने धर्मसकट उपस्थित हो गया । उन्होने समझ लिया - यह मारा योजनावद्ध पक्रम हमारी परीक्षा के लिए ही किया गया है । आचार्य हरिभद्र के द्वारा वार-बार निषेध किए जाने पर भी वे आग्रहपूर्वक यहा पढने के लिए आए थे । गुरुजनो के आदेश निर्देश की अवहेलना का परिणाम अहितकर होता है यह उन्हें सम्यक् प्रकार से अवगत हो गया। दोनो ने एकात मे विचार-विमर्श किया । ज्येष्ठ वन्धु ने खटिका से प्रतिमा पर ब्रह्मसूत्र की रेखा खीचकर जिन प्रतिमा की प्रतिकृति को पूर्णत परिवर्तित कर दिया और उस पर चरण रखकर आगे बढा । परमहंस ने हस का अनुगमन किया। यह काम हस ने अत्यन्त त्वरा से तथा कुशलता मे किया था । युगल - वन्धु अपने पुस्तक- पन्नो को लेकर वहा से पलायन करने मे सफल हो गए। सयोग की बात थी -हस का मार्ग ही प्राणात हो गया। दूसरा आचार्य हरिभद्र के चरणो मे आकर गिरा । पुस्तकपन्ने उनके हाथो मे सौपकर उसने अत तोप की अनुभूति की । गहरी थकान के वाद शिष्य का जीवन पूर्ण विश्राम की कामना कर रहा था । आचार्य हरिभद्र के देखते-देखते परमहंस का प्राणदीप बुझ गया ।
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शिष्य हस का प्राणात मार्ग मे ही हो गया था या कर दिया गया था यह उत्लेख प्राचीन ग्रंथो मे समान रूप से ही प्राप्त है । परमहस की मृत्यु के विषय मे भिन्न-भिन्न अभिमत हैं | प्रबंध संग्रह के अनुसार किसी व्यक्ति के द्वारा चित्रकूट मे आकर निद्राधीन परमहंस का शिरश्छेद कर दिया था । प्रात काल मे आचार्य हरिभद्र ने शिष्य कबन्ध को देखा, वे कोपाविष्ट हो गए । "
aat प्रिय शिष्य की मृत्यु ने उनको अप्रत्याशित निर्णय पर पहुचा दिया था । महाराज सूरपाल की अध्यक्षता मे उन्होने वौद्धो के साथ शास्त्रार्थं किया। इस गोष्ठी की भावी परिणति अत्यन्त भयावह एव हिंसात्मक थी । परास्त दल को गर्म तेल के कुड मे जलने की प्रतिज्ञा के साथ इस शास्त्रार्थ का प्रारम्भ हुआ था । हरिभद्र इस समर मे पूर्ण विजयी हुए । प्रस्तुत हिसात्मक घटना की सूचना आचार्य जिनदत्त को मिली । उन्होने कोपाविष्ट आचार्य हरिभद्र को प्रतिबोध देने के लिए दो श्रमणो को तीन श्लोक देकर भेजा था। वे श्लोक इस प्रकार है गुणसेण-अग्गिसम्मा सीहाणदा य तह पिआपुत्ता |
सिहि - जालिणि माइ- सुआ धन - धणसिरिमो य पइ-भज्जा ।। १८५॥ जय-विजयाय सहोअर धरणो लच्छी अ तह पई भज्जा । सेण-विसेणा पित्तिय उत्ता जम्मम्मि सत्तम ॥ १८६॥ गुणचन्द - वाणमन्तर समराइच्च गिरिसेण पाणो अ । एगस्स तओ मोक्खोऽणन्तो अन्नस्स ससारो ॥ १८७॥ ( प्रभावक चरित, पृ०७३ )