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________________ २०६ जैन धर्म के प्रभावफ नानागं महाप्रभावी आचार्य गिगेन रेम्वर्गारोहण की गूचना वाग्मी भट्ट के माथ वहा प्रेपित की। उसने यहा जाकर श्रमण गगा में श्लोक का अधं भाग बोला पुरन्ति वादिगयोता साम्प्रत दक्षिणापथे। पुन -पुन ग बालय का उच्चारण वाग्मी भट्ट के द्वाग नुनकर आचार्य सिद्धसेन की गिन गरस्वती भगिनी गमज गयी-उराका भाई अब ममार में नहीं रहा है। उमने वाग्मी भट्ट सारा उच्चारित नीक का अर्धाण पूर्ण करते हुए कहा ननमम्तगतो यादिगिद्धमेनो दिवार । इन दो चरणो की रनना मे एव गिद्ध मरस्वती विणेपण से लगता है, आचार्य मिद्धमेन की भाति उनकी भगिनी भी प्रतिभागम्पन्न गाध्वी थी। आचार्य मिद्धगेन का युग आरोह और अवरोह का युग था। संस्कृत भाषा का उत्कर्ष एव प्रागृत भाषा का अपापं हो रहा था। पुम्नको के पेन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति आरम्भ हो चुकी थी। श्रमण जीवन में शिथिलाचार प्रवेग पा रहा था। राजमम्मान प्राप्त जैनाचार्यों की दृष्टि मे व्यक्तित्व-प्रभावना का लक्ष्य प्रमुख एव साधुनर्या की बात गौण बन गयी थी। श्रमणो के द्वारा गजशिविका आदि विशेष वाहनो का उपयोग भी उम युग में होने लगा था। आचायं मिद्धसेन का जीवन-प्रमग इन सारे विन्दुओ का मकेतक है। आचार्य गिद्धसेन से प्रभाविन शामक विक्रमादित्य गुप्तवशीय राजा द्वितीय चन्द्रगुप्त के युग के थे और सवत्मर प्रवर्तक प्रसिद्ध विक्रमादित्य से भिन्न थे। __ आचार्य मिद्धसेन द्वारा रचित साहित्य में मदृब्ध, मुललित, सालकारिक, प्रवाहमयी सस्कृत भाषा रवस्प के आधार पर वे वी०नि० ११वी (वि० की चौथी-पाचवी) शताब्दी के विद्वान् माने गए है। आधार-स्थल १ धर्मलाभ इति प्रोक्त, दूरादुद्धतपाणये । सूरयेसिद्ध सेनाय ददौ कोटि नराधिप ॥६॥ (प्रभावक चरित, पृ०५६) २ विद्ये लभते स्म। एका सर्पपविद्या, अपरा हेमविद्या । तत्र सर्पपविद्या सा ययोत्पन्ने कार्य मान्त्रिको यावत सपंपान जलाशये लिपति तावन्ताऽश्ववारा द्विचत्वारिंशदुपकरणसहितानि सरन्ति । तत परबल भज्यते । सुभटा कार्यसिद्धरनन्तरमदृश्यो भवन्ति । हेमविद्या पुनरफ्लेशेन शुद्धहेम-कोटी सद्यो निष्पादयति, येन तेन धातुना । तद्विद्याद्वय सम्यग् जयाह । (प्रबन्धकोश, पृ० १७) ३ सावधान पुरो यावद् वाचयत्येप हर्पभू । तत्पन्न पुस्तक चाथजह्न श्रीशासनामरी।।७२॥ (प्रभावक चरित, पृ० ५६)
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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