________________
सरस्वती-कठाभरण आचार्य सिद्धसेन २०३
था, वारह वर्ष की इस अवधि में उनसे जैन शासन की महनीय प्रभावना का कार्य सम्पादित हो सका तो दण्डकाल की मर्यादा से पूर्व भी उन्हे सघ में सम्मिलित किया जा सकता है।
सघमुक्त आचार्य सिद्धसेन मुनिवेश परिवर्तित कर सात वर्ष तक विहरण करते रहे । उसके बाद उनका आगमन अवन्ति मे हुआ। वे शिव मदिर मे पहुचकर प्रतिमा को विना नमन किए ही बैठ गए। पुजारी ने उन्हे पुन -पुन प्रतिमा-प्रणाम के लिए कहा, पर आचार्य सिद्धसेन पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। उन्होने पुजारी की बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया। इस घटना की सूचना राजा के कानो तक पहुची । विक्रमादित्य स्वय शिव मदिर मे उपस्थित हुआ और सिद्धसेन से वोला--"क्षीर लिलिक्षो भिलो । किमिति त्वया देवो न वद्यते-हे दूधपान करने वाले श्रमण । देव प्रतिमा को वन्दन नही करते?" आचार्य सिद्धसेन बोले, "मेरा वन्दन प्रतिमा सहन नहीं कर सकेगी।"
राजा वोला, "भवतु क्रियता नमस्कार -जो कुछ घटित होता है, होने दो।
तुम वन्दन करो।"
शिव प्रतिमा के सामने बैठकर आचार्य सिद्धसेन ने काव्यमयी भाषा मे स्तवना प्रारम्भ की। फलस्वम्प आचार्य सिद्धसेन द्वारा बत्तीम द्वानिशिकाओ (स्तुति काव्य) का और तदनन्तर महान प्रभावक कल्याण मदिर स्तोत्र का निर्माण हुआ। कल्याण मन्दिर स्रोत के १३वं श्लोक के साथ पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई। ___आचार्य सिद्वमेन के इस कार्य से जैन शासन की महनीय प्रभावना णतगुणित होकर प्रसारित हुई। राजा विक्रमादित्य ने आचार्य सिद्धमेन का महान् सम्मान किया और उनका परम भक्त बना। राजा विक्रमादित्य की विद्वन्मण्डली मे भी आचार्य सिद्धसेन को गौरवमय स्थान प्राप्त हुआ।
आचार्य मिद्धसेन के प्रस्तुत प्रयत्न को सघ अतिशय प्रभावना का महत्त्वपूर्ण अग मान श्रमण सघ ने उन्हे दट मर्यादा से पाच वर्ष पूर्व ही गण मे सम्मिलित कर लिया।
सिद्धमेन प्रगतिगामी विचारो के धनी थे। उनके नवीन विचारो का विरोध होना स्वाभाविक था। द्वादश वर्षीय सघ वहिष्कार के रूप मे दण्ड की यह पद्धति अवश्य अनुमन्धान का विषय है।
साहित्य-निर्माण की दिशा में उन्होने जो कुछ किया, वह अनुपम था। आगमिक तथ्यो को तर्क की भूमिका पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय उन्हे है। जैन दर्शन मे न्याय के वे प्राण-प्रतिष्ठापक थे। दिग्गज विद्वान् धर्मकीर्ति, दिड्नाग और वसुवन्धु के वे सवल प्रतिद्वन्द्वी थे।
'न्यायावतार' अन्य उनकी न्यायविषयक सर्वया मौलिक रचना है। जैन न्याय मे सस्कृत भापा का यह प्रथम ग्रन्थ भी है। आगमो मे वीज रूप से प्राप्त प्रभाव