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जैन सस्कृति-नरक्षक आनाय देवलिंगणी क्षमाश्रमण १९१
। अयं यशोमत
१८ जाय आनन्दिल ईश नभूतविनय
१% आयं नागरन्ती गर भदवार
१६ मा रेवतीनक्षत्र = आर्गन्धुलभद्र
२० जारं ग्रामसिंह हागिरि
२१ जाय यन्दिनानाय १० आरं गुरुस्ती
मारियन ११ आरंबनिन्नह
२३ आर नागाजन १२ जायं न्यानि
२४ गांगुतमिन्न आयाम
५५ आप लौरिग १४ आर्य पाहिल्य
२६ जादूप्पणी १५ मा नमुद्र
२. गयं देवद्धिगणी १६ ला मगु __चूमिकार श्री जिनदाम महत्तर, टीकाकार नानागं हरिगा एय मनयगिरिने भयं धर्म मह गुप्त, कारवामी, नक्षिन, गोविन्द इन पाचो भावार्यो नामगत पद्यों को प्रक्षिप्त मानकर नसी गाना वाचा या परमन में नहीं की है।
शिवार एव टीगाफार नै नन्नीगूत्र की ग्नना का श्रेय नाचार्य देववाचा को प्रदान किया है। देवयाचा और देवद्विगणी मोनो अभिन्न पुराप थे।
भद्रेश्वर मूरि मृत पहायली' में वादी, क्षमा श्रमण, दिवाकर, पाचक इन गन्दी को एकार्य माना है।
विद्वान मुनि पुण्य विजय जी हाग नन्दीगूव की प्रस्तावना में इन मदर्भ गी समीचीन मीमामा प्रस्तुत है।'
जैन शासन आयं देद्धिगणी क्षमाश्रमण की आगमन्चानना का युग-युग तक आमागे न्हेगा। उनके मन मग प्रयत्न के अभाव में श्रुतनिधि का जो रुप आज प्राप्त है वह नहीं हो पाता।
वीर निः नहर वर्षीय अवधि की सम्पन्नता एव अतिम काल के प्रारम्भ में आयं देवद्धिगणी मयोजक कढी थे। दर्शन एवं न्याय के युग को आगम युग के माथ अपनी माहिल्यधारा के माध्यम में उन्होंने जोडा। नन्दीमून इसी दिशा का एक प्रयत्न प्रतीत होता है। ___ अन्तिम पूर्वधर भी आर्य देवद्धिगणी थे। पूर्व जान सम्पदा वीर निर्वाण के बाद कान के तर प्रहारो मे क्षत-विक्षत होकर मी हजार वर्ष तक अस्तित्व में रही है। दम जाधार पर सम्भवत आगम गचनाकार आर्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का वी० नि० १००० (वि०५३०) मे स्वर्गवास हुआ। उनके साथ पूर्व ज्ञान को धारा भी पूर्णत विच्छिन्न हो गयी।