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१८४ जैन धर्म के प्रमावक आचार्य
अध्यक्षता में सम्पन्न हई। इगे वल्लभी वाचना एव नागार्जुनीय वाचना की मजा मिली है । स्मृति के आधार पर मूत्र-मकलना होने के कारण वाचना भेद रह जाना स्वाभाविक या। आचार्य देवद्विगणी के गमय मे भी आगम वाचना का महत्त्वपूर्ण कार्य वल्लभी में हुआ है। अत वर्तमान में आचार्य नागार्जन की जागम वाचना को प्रयम वल्लभी वाचना के नाम में भी पहचाना जाता है। _____ इतिहास के पृष्ठो पर दोनो याचनाओ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्षत-विक्षत आगमनिधि का उचित समय पर मकलन कर इन दोनो आचार्यों ने जैन शासन पर महान् उपकार किया है।
आचार्य देवद्धिगणी ने इन दोनों ही आचार्यों की भावपूर्ण शब्दो मे स्तुति की है । आचार्य नागार्जुन के विषय मे वे लिखते हैं
मिउमज्जव सपण्णे अणुपुचि वायगत्तण पत्ते।
ओहसुयसमायारे णाणज्जुणवायए व दे॥३५॥ (नन्दी सूत्र) मृदुतादि गुणो मे सम्पन्न, मामायिक श्रुतादि के ग्रहण मे अथवा परम्परा से विकास की भूमिका का क्रमण गारोहणपूर्वक वाचक पद को प्राप्त ओघ श्रुत समाचारी मे कुशल आचार्य नागार्जुन को मैं प्रणाम करता है। * वाचनाचार्य स्कन्दिल के विषय में उनका प्रसिद्ध श्लोक है
जेसि इमो अणुओगो पयरड अज्जावि अड्ढभरहम्मि। बहुनगरनिग्गयजमे ते वदे खदिलायरिए ॥३२॥ (नन्दी मूत्र)
प्रस्तुत पद्य में आचार्य स्कन्दिल के अनुयोग को सम्पूर्ण भारत मे प्रवृत्त बता कर उनके प्रति देवद्धिगणी ने अपार मम्मान प्रकट किया है। नन्दी मूत्र के इस उत्लेख के आधार महामहिम आचार्य स्कन्दिल के उदात्त व्यक्तित्व का प्रभाव पूरे भारत मे प्रतीत होता है। आचार्य देवद्धिगणी ने आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुख माना या । यह तथ्य भी उपर्युक्त गाथा के आधार पर प्रमाणित होता है। ___ आचार्य नागार्जुन धृति सम्पन्न, महा पराक्रमी, स्वाध्यायी उपमर्गादि प्रतिकूलताओ के सहने मे अकम्प हिमालय वाचनाचार्य हिमवन्त के शिप्य थे।'
नीलोत्पल की भाति श्यामवर्ण वाचनाचार्य रेवती नक्षत्र के विद्वान् शिष्य ब्रह्मद्वीपक सिंह आचार्य स्कन्दिल के गुरु थे। ब्रह्मद्वीपक सिंहकालिक श्रुत के ज्ञाता, अनुयोग कुशल, धीर-गम्भीर एव उत्तम वाचक पद से सुशोभित थे। ___'वीर निर्वाण सवत् और जैन काल गणना' कृति में प्रदत्त हिमवन्त स्थविरावली के अनुसार आचार्य स्कन्दिल का जन्म मथुरा के ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मेघरथ एव माता का नाम रुपसेना था। मेघरथ एव रूपसेना दोनो उत्कृष्ट धर्म की उपासना करने वाले, जिनाज्ञा के प्रतिपालक श्रावक थे। गृहस्थ जीवन मे आचार्य स्कन्दिल का नाम सोमरथ था । ब्रह्मदीपिका शाखा के