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________________ १८२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य प्रमाणित किया है। प्रभावक आचार्यों की परम्परा में उमास्वाति एक ऐसे आचार्य हुए है जिनको दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो समान भावेन सम्मान देते हैं और इन्हें अपनी-अपनी परम्परा का मानने में गौरव का अनुभव करते है। दिगम्बर परम्पग मे उमास्वाति और उमास्वामी दोनो नाम प्रचलित हैं। श्वेताम्बर परम्परा मे केवल उमाम्बाति नाम ही प्रसिद्ध है। आचार्य उमास्वाति की जीवन परिचायक मामग्री निम्नोस्त पद्यों में उपलब्ध वाचकमुख्यम्य शिवश्रिय प्रकाशयशस प्रशिष्येण । शिष्येण घोपनन्दिक्षमा श्रमणम्यैकादशागविद ॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिप्यस्य। शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्न प्रथितकीर्ते ॥२॥ न्यग्रोधिकाप्रमूतेन विहरता पुरवरे कुमुमनाम्नि। कोभीपणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाय॑म् ।।३।। अहंद्वचन गम्यम्, गुरुक्रमेणागत समवधायं । दुखात च दुरागम-विहतमति लोकमवलोक्य ॥४॥ इदमुच्च गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाव्य स्पप्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥५॥ यस्तत्त्वाधिगमाज्य ज्ञाम्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्यावाधसुखाय प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥३॥ (तत्त्वार्थ भाप्य कारिका) आचार्य वलिस्सह के उत्तराधिकारी हारीत गोत्रीय आचार्य स्वाति आचार्य उमास्वाति से भिन्नथे। 'तत्त्वार्थ सूत्र' के रचनाकार आचार्य उमास्वाति का समय वि० को तृतीय सदी स्वीकार किया है। अत वे वीर निर्वाण की आठवी शताब्दी के आसपास सिद्ध होते है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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