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प्रबुद्धचेता आचार्य पुष्पदन्त एव भूतवलि १७६
प्रतिपादन है। ___षप्ठ विभाग का नाम 'महावन्ध' । महावन्ध का विस्तार तीस सहस्र श्लोक परिमाण है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश वन्ध की व्याख्या इस विभाग मे प्राप्त है। __पट्खण्डागम के छह खण्डो मे चालीस सहस्र श्लोक परिमाण यह अन्तिम खण्ड महावन्ध के नाम से प्रसिद्ध है। महावन्ध का दूसरा नाम महाधवल भी है। पट्खण्डागम ग्रन्थ से सयुक्त होते हुए भी यह स्वतन्त्र कृति के रूप में उपलब्ध है। पटखण्डागम के पाचो खण्डो से महावन्ध का विस्तार अधिक है। धवल टीकाकार आचार्य वीरसेन ने इस पर टीका लिखने की आवश्यकता ही नही समझी थी। यह महावन्ध आधुनिक शैली मे सात भागो मे 'भारतीय ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित है। जैन दर्शनसम्मत कर्मवाद का पर्याप्त विवेचन इस कृति से प्राप्त किया जा सकता
__ जिनपालित आचार्य पुष्पदन्त और भूतवलि के मध्य मे ग्रन्थ-निर्माण कार्य मे सयोजक कडी सिद्ध हुए। सभवत आचार्य भूतवलि के पास रहकर ग्रन्थ लेखन का कार्य भी जिनपालित ने किया था।
साहित्य को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से पुष्पदन्त और भूतवलि के समय मे प्रथम वार साहित्य निबद्ध किया गया था। दिगम्बर परम्परा मे इससे 'पहले श्रुत पुस्तक-निवद्ध नही था।
- आचार्य पुप्पदन्त एव भूतवलिं द्वारा प्रसूत इस नई प्रवृत्ति का जनता के द्वारा विरोध नही. स्वागत ही हआ था। कहा जाता है--पुस्तकारूढ साहित्य को ज्येष्ठ शुक्ला पचमी के दिन सघ के सामने प्रस्तुत किया गया था। अत यह पचमी 'श्रुत पचमी' के नाम से प्रसिद्ध हुई है। इस प्रमग पर ग्रन्थ का सघ ने पूजा महोत्सव मनाया। यह ग्रन्य सम्पन्न हुआ, उस समय तक भाग्य से आचार्य पुष्पदन्त विद्यमान ये। भूतवलि ने इस ग्रन्थ को सम्पन्न कर आचार्य जिनपालित के साथ प्रेषित किया। विविध सामग्री से परिपूर्ण इस ग्रन्थ को देखकर आचार्य पुष्पदन्त को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। __कृति को प्रशस्ति मे भूतवलि और जिनपालित दोनो के नाम का उल्लेख नही है।
महावन्ध की प्रस्तावना मे आचार्य भूतवलि का काल वी०नि० ६६३ के वाद माना है। इस आधार पर प्रवुद्धचेता आचार्य पुष्पदन्त एव भूतबलि का कालमान वी०नि० की सातवी शताब्दी का उत्तरार्ध एव वि० की द्वितीय शताब्दी का उत्तरार्ध है।