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२८. आलोक-कुटीर आचार्य अहं बलि आचार्य अहं वलि मूल सघ के अधिपति थे। वे अगो के एक देशपाठी थे। पूर्वांशो का ज्ञान भी उन्हे था । इनका दूसरा नाम 'गुप्ति गुप्त' भी था।
__ आचार्य अर्हद् बलि महान् समर्थ आचार्य थे। उनके पुप्पदत और भूतवलि नामक दो विद्वान् शिष्य थे। पुष्पदत श्रेष्ठीपुत्र ये। भूतवलि सौराष्ट्र के 'नहपान' नामक नरेश थे। 'गौतमीपुत्र' 'सातकरणी' से पराजित होकर अर्हद् वलि के पास उन्होने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की थी। __ आन्ध्र प्रदेश मे स्थित वेणा नदी के तट पर बसे हुए महिमा नगर मे महामुनिसम्मेलन हुआ था। उसकी अध्यक्षता आचार्य अर्हद् बलि ने की थी। इस सम्मेलन मे सघ की अतरग और बहिरग स्थितियो पर विचार-विमर्श हुमा था।
मूल सघ मे उस समय अनेक विद्वान्, तपस्वी, स्वाध्यायी, ध्यानी एव अध्ययनअध्यापनरत श्रमण विद्यमान थे । अर्हद् वलि ने इस सघ को नन्दी, देव, सिंह, भद्र, वीर, अपराजित, पच स्तूप, गुणधर आदि भिन्न-भिन्न उपसघो मे विभक्त कर एक नई सघ व्यवस्था को जन्म दिया। इन सघो को स्थापित करने मे धर्मवात्सल्य की अभिवृद्धि एव जैन सघ की प्रभावना का उद्देश्य प्रमुख था।
आचार्य अर्हद वलि पुण्ड्रवर्धन नगर के निवासी थे। शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के योग से उनकी प्रख्याति अधिक विश्रुत हुई।
आचार्य अर्हद् वलि ज्ञानालोक के कुटीर थे एव अपने युग की महान् हस्ती थे। उनका समय वी० नि० ५६५ (वि० ९५) के आस पास माना गया है।