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१७२ जैन धर्म प्रमाण आचार्य उन्होंने अपना नहींगाग्य माना। विपरित पाव तो भोजन में दर न्य दिया एव मुनिको विगुप्त मागे दाना।
मगे नतुर महिना यो । मनेगन अन्तरको मुनि के मामन रखा एव लन मूल्य पाT में रिप-गिधित करने की याजना प्रस्तुत की।' घटना-प्रमग मा नुनतीजा गंगन गुनि ती दग गधर यजम्बानी के कयन का स्मरण हो माया गिात श्रेष्ठी पग्विार आम्बानन देन हुए वे बोले, "भाजन विग-गिविन गत पाग, अब यह पट अधिक समय का नहीं है। तुम नरम नीमा पर पहन का। मुझे दम पूर्वधर बज स्वामी ने कहा था, 'जिग दिन गक्ष मूल्य पापी जलधि होगी नही दुमान की परिममाप्ति का दिन हागा। नायन के गधार पर न ही मुराद प्रमान का उदय होने वाला
उदीप्त भान एव निन्या पतिल मुनि वज्रमेन के अमृतोपम वचनो को गुनार जिनदत्त श्रेष्ठी एव उन पग्विार आत्मतोप की अनुभूति हुई एव भोजन के गाय विप-मियण की योजना स्थगित कर नुकस की प्रतीक्षा मे समता मे काल-यापन करने गगे।
दगरे दिन प्रगान मे जल मे भरे पोत नगर की सीमा पर ग पहुंचे। आर्य पान की वाणी अन्य प्रमागिन । प्ठी का पूरा परिवार यान-वलित होने में वत्र गया।
पस्तुत घटना-प्रसग याद गगार से विरत्त होकर जिनदत्त श्रेष्ठी जोर ईश्वरी ने अपने पुन्न नागेन्द्र, चन्द्र, पिदाधर और निवृत्ति के साय मार्ग वज्रमेन से दीक्षा गहण की। चागे पुत्रो के नाम पर चार कुल (गण) स्थापित हुए-नागेन्द्र गुल, चन्द्र TI, विद्यावर पुन, निवृत्ति कुरा। प्रत्येक गावा में अनेक प्रभावक जात्रार्य हुए है । नागेन्द्र नादि चारो मुनियो के लिए कुछ कम दश पूर्वधारी होने का उलेख भी मिलता है।
विवेक-दपण मानार्य वबमेन दोघजीवी आचार्य थे। वे नौ वर्ष की अवस्था मे धमण वने । अनुयोगधर जायरक्षित की अनुयोग-व्यवस्था के समय आचार्य वज्रसेन वाचनाचार्य के रूप में उपस्थित थे। उन्होने युगप्रधान के रूप मे आचार्य पद का दायित्व ध्यानयोगी आचार्य दुर्वलिका पुष्यमित्र के वाद वी० नि० ६१७ (वि० १४७) मे सभाला। उनका आचार्ग-कान मान्न तीन वर्ष का था। सयम-पथ पर उनके चरण लगभग १२० वर्ष तक सोत्साह वढने रहे। उनकी सर्वायु १२८ वर्ष की थी। वे वी०नि०६२० (वि० १५०) मे स्वर्ग-सम्पदा के स्वामी बने।'