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________________ विलक्षण वाग्मी आचार्य वन स्वामी १४१ भ भविष्य की सूचना दे रहे थे। निमित्त ज्ञानी आर्य सिंहगिरि को लगा, यह वालक प्रवचनाधार एव धर्म सघ का विरोप प्रभावक होगा। दीर्घ प्रतीक्षा के बाद प्राप्त पुत्र का जितना हर्ष एक पिता को होता है उममे शतगुणाधिक आनन्द आर्य सिंहगिरि को बालक वन की उपलब्धि से हुआ। वे माध्वियो के उपाश्रय में शय्यातर महिला को शिगु सरक्षण का दायित्व समलाकर लोक कल्याणार्थ वहा से प्रस्थित हुए। __शय्यातर धाविका वालक के पालन-पोषण का पूरा ध्यान रखती, माता जैसा प्रगाढ स्नेह देती। स्नान, दुग्ध-पान, शयन आदि की सम्यक् व्यवस्था करती। वालफ का अधिमाश समय माध्वियो के परिसाव में बीतता। झूले में झूलता हुआ वालक व अतन्द्र रहकर साध्वियो के न्वाध्याय को गुनता एव शास्त्रीय पद्यो की सप्टोच्चारण विधि तथा प्रत्येक शब्द के व्यजन, स्वर, माना, विन्दु, घोप पर विशेष ध्यान रखता। श्रवण मान ने वालफा को एकादगागी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था। शिशु के समान ग्रहण- गोल को कोई नहीं जान सका। नुनदा माध्वियों के दगनाथ लाया करती थी। उसने गम्य सरक्षण में प्रफुल्ल बदन अपने पुत्र को देगा। मा का ममत्व जाग गया। उमे लेने की स्पृहा जनी । साध्वियों में भी पुत्र को लौटा देने के लिए उसने बहुत वार अनुनय-विनय भी दिया। माध्वियों ने उने ममताया। यहिन । वस्त्र, पान पी माति भक्ति भाव में प्रदत्त इन वालक को भी लौटाया की जा सकता है । तुम्हाग पुन म माह है। तुम यहा जाफर इसका लालन-पालन कर सकती हो। गुरुदेव के नादेश विना इसे घर नहीं ले जा सकती। कुछ समय तक गुनदा वही पुत्र को स्नेह प्रदान कर अपनी मनोरामना पूर्ण करती रही। "आन का स्वाद इमली में नहीं आता।" यही स्थिति गुनदा की थी। जा सिंहगिरि का पुन तुम्बवन मे पदार्पण हुआ। मुनदा ने मुनि धनगिरि मे पुत्र की माग की। उनकी प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई। मुनि ने कहा-"कन्यादान की भाति उत्तम पुरुपी ये वचन भी वार-बार बदले नही जाते।" ___ एव विमृश धमजे नो वा मन्त्यत्र साक्षिण । ~~धर्मज्ञे जिनको माक्षी बनाकर तुमने दान दिया था वे भी उपस्थित है। तू अपने वचन की मम्यक् प्रतिपालना कर। पुत्र गुरु की निधि हो चुकी है। उमपर अब तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। निरुपाय मुनदाराजा के पास पहुची और न्याय मागा। उस युग मे न्याय निप्पक्ष था। नारी हो या पुरुप, धनी हो या निर्धन, न्याय सबके लिए समान व मुलभ था। एक नारी को न्याय देने के लिए राजा ने ममघ मुनिजनो को आमनित किया। "धर्माधिकरणा युक्त पाठी पक्षावभावपि ॥२॥ प्रभा० च०, पृ०४ -न्यायाधिकारी वर्ग ने उभय पक्ष की वात सुनी । एक ओर पुत्र की याचना,
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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