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११२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
रेखा के आधार पर आचार्य श्याम ने जाना - ' नवागन्तुक वृद्ध ब्राह्मण की आयु पल्योपम से भी ऊपर पहुच रही है ।' आचार्य श्याम ने उसकी ओर गम्भीर दृष्टि से देखा और कहा - "तुम मानव नही देव हो ।” सौधर्मेन्द्र को आचार्य श्याम के इस उत्तर से सन्तोष मिला एव निगोद के विषय मे जानना चाहा । आचार्य श्याम ने निगोद का सागोपाग विवेचन कर इन्द्र को आश्चर्याभिभूत कर दिया। अपनी यात्रा का रहस्य उद्घाटित करते हुए सौधर्मेन्द्र ने कहा - " मैने सीमन्धर स्वामी से जैसा विवेचन निगोद के विषय में सुना था वैसा ही विवेचन आपसे सुनकर मैं अत्यन्त ही प्रभावित हुआ हू ।""
देवो की रूप सम्पदा को देखकर कोई शिष्य श्रमण निदान न कर ले, इस हेतु से भिक्षाचर्या मे प्रवृत मुनि मण्डल के आगमन से पहले ही सोधर्मेन्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करता हुआ जाने लगा ।
ज्ञान के साथ अह का अभ्युदय भी बहुत स्वाभाविक है। महा पराक्रमी विशिष्ट साधक बाहुबली मे एव कामविजयी आर्य स्थूलभद्र मे भी अहकार मूर्त रूप धारण कर प्रकट हो गया था । श्यामाचार्य के शब्दो मे भी अहं सिर उठाकर बोला - "सोधर्मेन्द्र देवागमन की बात मेरे शिष्य बिना किसी साकेतिक चिह्न
" कैसे जान पाएंगे ?" आचार्य देव का निर्देश पा सोधर्मेन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्व से पश्चिमाभिमुख कर दिया । आचार्य श्याम के शिष्य गोचरी करके लौटे। वे द्वार के स्थानान्तरण से लेकर इन्द्रागमन की सारी घटना को सुनकर विस्मयाभिभूत हो गए ।
इन्द्रागमन की यह घटना प्रभावक चरित के कालक सूरि प्रबन्ध मे आचार्य कालक के साथ एव विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूर्णि - आदि ग्रन्थो मे आर्य रक्षित के साथ भी प्रयुक्त है ।
माथुरी युग-प्रधान पट्टावली के अनुसार आचार्य श्याम के बाद आर्य पाडिल्य हुए है। आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने उन्हे जीतधर विशेषण से विशेषित किया है । आर्य पाडिल्य काश्यप गोत्रीय थे ।" जीत व्यवहार की प्रतिपालना में पूर्ण जागरूक थे । पाडिल्य गच्छ का प्रारम्भ इन्ही से हुआ था ।
निगोद व्याख्याता श्यामाचार्य का शासनकाल ४१ वर्ष तक रहा। जैन शासन की श्रीवृद्धि मे विशेष ख्याति प्राप्त कर वीर निर्वाण ३७६ (वि० पू० १४ ) में ६६ वर्ष की अवस्था मे स्वर्गगामी बने ।