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( तेरह )
परिश्रम का परिणाम है ।
विवेक दीप
परागम प्रवीण, बुद्धि उजागर, भवान्धि पतवार, कर्मनिष्ठ, करुणा कुबेर एव जन-जन हितैपी जैनाचार्यो की असाधारण योग्यता से एव उनकी दूरगामी पद यात्राओ से उत्तर, दक्षिण के अनेक राजवश प्रभावित हुए। शासन शक्तियो ने उनका भारी सम्मान किया । विविध मानद उपाधियो से जैनाचार्य विभूषित किये गए पर किसी प्रकार की पद-प्रतिष्ठा उन्हे दिग्भ्रान्त न कर सकी । पूर्व विवेक के साथ उन्होने महावीर सघ को सरक्षण दिया एव विस्तार भी । आज भी जैनाचार्यो के समुज्ज्वल एव समुन्नत इतिहास के सामने प्रबुद्धचेता व्यक्ति नतमस्तक हो जाते है । मेरे मानस पर भी जैनाचार्यों की विरल विशेषताओ का प्रभाव लम्बे समय से अकित था ।
सयोगत भगवान् महावीर की पच्चीसवी निर्वाण शताब्दी के अवसर पर उनकी अर्चना मे साहित्य समर्पित करने का शुभ्र चिन्तन तेरापथ के अधिनायक युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के तत्वावधान मे चला । जैन दर्शन से सम्वन्धित पच्चीस विपय चुने गए थे उनमे किसी एक विषय पर सौ पृष्ठो जितनी सामग्री लेखन का निर्देश मुझे प्राप्त हुआ । मैंने अपनी सहज रुचि के अनुसार "जैन धर्म के प्रभावक आचार्य” इस विषय को चुना और हार्दिक निष्ठा से लिखना प्रारंभ किया । मेरी लेखनी जैसे ही आगे वढी, मुझे अनुभव हुआ कि प्रारंभ में यह विपय जितना सरल लग रहा है उतना ही दुरूह है । इस प्रसग पर कवि माघ का भावपूर्ण पद्य स्मृति पटल पर उभर आया
तु गत्वमितिरा नाद्री नेद सिन्धावगाहता । अलघनीयता हेतुरुभय तन्मनस्विनि ॥
सागर गहरा होता है ऊंचा नही, शैल उन्नत होता है गहरा नहीं, अत इन्हे मापा जा सकता है । पर उभय विशेषताओं से समन्वित होने के कारण महापुरुपो का जीवन अमाप्य होता है ।
अभिव्यक्ति की इस विशेषता को अनुभूत कर लेने पर भी प्रभावक आचार्यो के जीवनवृत्त को शब्द पटल पर चित्रित करने का मैंने प्रयास किया है । मैं जानती हू, सो पृष्ठों की मर्यादा का अतिक्रमण करके भी मनस्वी आचार्यों के जीवन महासागर से बिन्दु मात्र ही ले पाई हू, पर देवार्चना की शुभ वेला मे दो-चार अक्षत उपहार से जैसी तृप्ति भक्ति-भावित मानस को होती है, वैसी ही तृप्ति इस स्वल्प सामग्री के प्रस्तुतीकरण मे मुझे हुई है ।
साधना जीवन की मर्यादा के अनुरूप जितना इतिहास एव साहित्य मैं बटोर पाई हू, उसी के आधार पर यह लेखन है । जिसमे सम्भवत बहुत कुछ अनदेखा,