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________________ १९९ चोज लगायो रे ॥ स ० ॥ ५ ॥ बावीसमी दा लपरी थइ, साधा शेंठो करि लीनोरे ॥ बावीस परिसह जीतिने, मुक्तिकिलो कायम करि दीनारे ॥ ॥ ६ ॥ इति दारेसरा परिसह ॥ २२ ॥ ॥ इति साधुका बावीस परिसह समाप्त || ॥ अथ ग्यानरा दुहा सवैया लिख्यते ॥ दुहा ॥ यो जीव एकलो, जासे एकाएक ॥ काचे नरोसे कांई रहो, समजो आणी वीवे क ॥ १ ॥ चोरासी में नटकतां, पाम्यो नर व तार ॥ चेत शकेतो चेतले, नहीतो फेरो चोरा सी तैयार ॥ २ ॥ धर्म धर्म सहुको करे, मर्म न जा ऐ कोय ॥ जात न जाणे जीवनी, तो धर्मक्यां थकी होय ॥ ३ ॥ धर्म वामीये न नीपजे, धर्म हाटे न वेचाय ॥ धर्म शरीरे नीपजे, जे कछु कीनो जाय ॥४॥ धननंतीवार पामियो, धर्मज पायो नाहीं ॥ वेदालीद्री शाश्वता, कीशी गणतरी माही ॥ ५॥ धनवंतनेही दुःखबे, नीरधनियाने दुःख ॥ अं तर ग्यान विचारल्यो, समता पकड्या सुख ॥ ॥ ६ ॥ ग्यान समो को धन नहीं, समता समो न सुख ॥ जीवीत समी प्राशा नहीं, लोन समो
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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