SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोल नही आवे रे. तोहि भारत ध्यान न ध्या वे॥ कोइ केवे हइयारो ठोठो, माहारे ज्ञान अं तरायठे महोटो॥५॥ सत गुरारो विनय की जे, अवगुण गेडी गुण लीजें ॥ सूत्रनी वात ने साचीरे, संसारनी माया काचीरे॥६॥ इति ॥ दुहा ॥ दरिसण परिसह बावीसमो, रहे पो श्रद्धामें ठीक ॥शंका कंखा करणी नहीं, जि हां लागी मुक्त नजीक ॥१॥ ___ ढाल ॥ २२ ॥ मी ॥ बावीसमो परिसह ए हवो, सेवे को उत्तम साध रे॥ अन्यतीरथीने देखिने, न ाणे विखवाद रे॥१॥ समकित शठा राखना, टालजा मिथ्या फासार॥वातरा गना वचनमें, मति प्राणजो कोइ सांसोरेस ॥ ॥२॥ परदरिसण वंछे नहीं, फल प्रतें सांसो न पाणेरे ॥ दान शीयल तप नावना, यांरो फल निश्थें जाणोरे ॥ स०॥३॥ श्राधामतिने शं का पडी, मारया ने पट वालोरें ॥ चत्तर चेलो तिण गुरा तणो, समजाय लीयो ततकालोरे, ॥स० ॥ तराध्यन सूत्रमध्ये, दूजा अध्ययन महारो रे। बीजाइ ग्रंथामध्ये, तेहतणे. अनुसारें
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy