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________________ लंग ढोलीया, गादी गादलातेह ॥ पाथरपुं वा ठे नहिं, साधारो मारग एह ॥ सत्त० ॥२॥डा जादिक तणे करी, पथारी सुवेरे संथार ॥ पाट बाजोठ ने आगणो, धन्य तिणे तज्यो संसार ॥ स०॥३॥ सुकुमार शरीरना धणी, धन्नो ने शा लिनद्र देख ॥ बीजाइ घणा राजवी, राख्यो स मता भाव विशेष ॥ स०॥४॥ सत्तरमी ढाल पूरी थइ, थोडाने घणो समास ॥धन ने साध ने साधवी, कीनो मुगतिमें वास । स० ॥५॥ - दुहा ॥ नहि उतारे रगड मेलने, धोवे नहिंध री प्रेम ॥ देह पराणे मोढवे,जाबजोवळे नेम ॥१॥ - हाल १८ मी । मेल परिसह हिवे जोय, ला ग्या मेल प्रति धोय ॥ साधुजी नहि करे शोना, ज्यारी सहेजें टल जाय रोना ॥ १ ॥ शरीर हुवो ये भैलो, भोतो धोवणरो नहि घेलो॥ कपडा हु वांछे मैला, शोना निमितें धोवे ते घेला ॥२॥ साधुजी नहि धोचे हाथने पग, स्लान नहीं करे अंग ॥ साधवीया धोवे हाथ मुंमो, काम कीयो अति भो ॥३॥ जो कीधी हरकेशीरी सेवा, जारी करमा काढ़े कीवा ॥ उत्तराध्ययन सूत्र में
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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