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________________ १८२ म काज ॥१॥ अथ स्त्री परिसह ॥८॥ ढाल ८ मी ॥ स्त्री परिसह सहेता ने, अति घणो आकरो जी। थौडा सुखारे काज, रतन कर यो कांकरो जी ॥ शुद्ध पालो ने निर्मल शील, मुनिवर नित्ये नमुं जी ॥१॥ ए आंक पी॥ स्त्रीरो रूप शिणगार,कदे नही देखणो जी ॥हाव नाव ने हास्य विलास, कदि नवि पेख पो जी॥शुद्ध० ॥२॥ नारी दीठां जागे नेह, चले चित्तमाहिलो जी ॥ पडे आणवो दोरो ठे काणे, ऐसो नर बावलोजी ॥ शुद्ध० ॥ ३॥ मो होठा मोहोठा मुनिराज, पड्या नारी पासमें जी ॥ आषाढने नंदीवेण, वश्या घरवासमें जी॥शुद्ध०॥४॥आद्रकुमार अणगार, तजी संसारने जी।चोवीस वरसा संग, पड्यो वशनारिने जी ॥शुद्ध० ॥५॥ रहनेमीरो चलियो चित्त, दे खी राजुल रूपने जी ॥ महा सतीया प्राण्यो ठाम, तारयो नवकुपने जी ॥शुद्ध०॥६॥थू लिनद्र कियो चोमास, वेश्यारी सालमें जी ॥ आसावत रह्यो साध, अग्नीनी जालमें जी ॥ शु० ॥७॥ समकित लीधो वेश्या नार, शी
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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