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________________ १७८ वाजे लू दावाजालो जी ॥ वेलु नूनार अग्निज्यू परजले, दाजे पग सुकमालो जी ॥ ३० ॥२॥ ॥ वादल वर्षा वायुवं नही, पावमी न पेहेरे पा योजी ॥ माथे वस्त्र न धरे चालता, नहीं पटके जल कायो जी ॥३०॥३॥ मोटको जाणेअति घणो रातनो, नही सूवे अगयो जी ॥ उ ना दाण मात्र रहेवे नही, नही लेवे तन वायो जी॥ ज० ॥४॥ उष्ण परिसह उग्र ते मुनि सहे, करता उपविहारो जी ॥ गाढी गरमी रेला उतरे, नही करे खेद लिगारो जी ॥ ज०॥५॥ जष्ण परिसह अरणक मुनि सह्यो, वचन सुपी निज मायो जी ॥ बलती शिल्ला अग्नि जेमपरजले, दीयो संथारो ठायो जी ॥ उ०॥६॥ काल करीने हुवा देवता, पाम्या सुख अपारो जी॥ इम अनंता साधु उद्धरया, कहेतां नावे पारो जी ॥ उ०॥७॥ इति नष्ण परिसह॥४॥ दुहा ॥ डंस मंस चटका दीये, साधु सेवे समनाव ॥हणे नही त्रसजीवने, ओहितिरण रोमाव ॥१॥ अथ डंसमंस परिसह ॥५॥ .ढाल ५ मी ॥ ममता नही आणे देहीनी,
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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