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________________ १७५ ॥५॥ ढंढण फिरता गोचरी, न मिल्यो आहा र निर्दोषोए ॥ श्रीनेम जिणेसर जस कह्यो, क म खपावीने गयो मोदोए ॥ स०॥६॥ श्रा हार पुरो मिले नही, नहि करे मनमें सोगोए॥ मिलिया नाडुदेवे देहने, जेणे श्रादरीयो जोगो ए॥ स॥७॥ असुजतो वं नहिं, जो हुवे लाख प्रकारोए ॥ चाले सुधे मारग साधुजी, ज्यांने महारो नमस्कारोए ॥ सः ॥८॥हुधापरिसह जीतिने, गया अचंता मोदोए ॥घ णा साधने साधवी, ज्यांने सदाइ संतोषोए । स०॥९॥ इति दुधापरिसह ॥१॥ दुहा ॥ अन्न खाधां अति उपजे, तरषातर घटाय ॥ कायर ने काचा परे, शूरा पोष ज थाय ॥१॥ हाल २ जी ॥ अन्नथकी अधिकुं का, तर पार्नु काम ॥ एकण पाणी बाहिरा, रहवे प्राण ज ठाम ॥ १.॥ दूजो परिसह दोहिलो ॥ सेवे काकंडी नूत, धन धन ते मोहोटा मुनि ॥ ली नो मुगतिनो सूत ॥ दू • ॥ २॥ तपे अति घ पो तावड़ो, करमो ग्रीषम काल ॥ वेलु नूनार
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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