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________________ १७४ ता, पामे वुद्धिनिधान ॥२॥ चोवीशमा वर्धमा नजी, ज्ञानतणा भंडार ॥ संथारामां नाखीयो, उत्तराध्ययन अधिकार ॥३॥ प्रथम विनय मूल कह्यो. धुर अध्ययने तेह ॥ विनीत परिस हखमें खातस, उत्तम साध गण गह ॥४॥ तजि संसारनै निसरीया. लीधो संजमे नार॥वा बीस परिसहने सहे, सदा ते सुणजो विस्तारा॥५॥ ___ ढाल १ ली ॥ उत्तराध्ययनसूत्रमध्ये को, परिसहरो अधिकारोए ॥ दूजाइ सूत्रांमध्ये, क ह्यो घणो विस्तारोए ॥१॥ सहेता हुद्धी परि सह दोहिलो ॥ ए आंकणी ॥ दिन उगंता ख लागेए, शुरा ते साहामा मंमें । कायर हुवें ते तो नागेए ॥ स० ॥२॥ प्रथम जिणेसर जगगुरु, गेड्यो वनितारो राजोए । चार हेजा र साथें हुवा, फिरता आहारने काजोए ॥ स० ॥३॥ नाज गया भोला थकी, मुनिवर केइक हजारोए । हुवो बरस दिवसनो पारणो, रह्या अडिंग अपारोए ॥ स०॥४॥ बाहुबल नामै मुनि, वनमें काउस्सग्ग ठायोए ॥ कण परिस ह तेणें सह्यो, ते मुनि मुक्ति सिधायोए ॥ स.
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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