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________________ १२८ श्रवतोकर्मरो उपायबे, ए आश्रवतों कर्मनोक बे, तोजीवबे इन्याय श्रवने जीवकही जे. अविरतप्रभवने जीव किणन्यायकहीजे, त्यागनावळे, जीवरा अत्यागनावरी आशा वांबाजीवरीबे, इणन्याय व्यविरताभवने जी कहीजे. प्रमादश्राश्रवने जीव किणन्यायकही जे, प्रण उवाहपते प्रमादाश्रबबे, ते अन छाप जीवरा परिणामवे, इण न्याय प्रमादा श्रबने जीवकहिजे. कपायाश्रवनेजीव किन्या यकहीजे, ए कषायत्रात्मा कहीजे, कपायते जीव परिणाम कह्यावें इणन्याय कपायाश्रवने जीवकहीजे. योगाश्रवने जीव किणन्याय कही जे. ए. योगात्माकह्यावे, योगते जीवरापरिणाम क ह्यावे, योगनामव्यापाररोबे, ते तीनुहियो गारो व्यापारजीव रोबे, इणन्याय योगाश्रवने जीवक हीजे. संवरनें जीवकिणन्यायकहीजे, ए समाइ, पच्चखाण, संजम, संबर, विवेक, वीवशग. ए बहुआत्माकह्यावे, वली चारित्र आत्मा कह्यावे चारित्रतेजीव परिणाम कह्यावे, इणन्याय संबर ने जीवकहीजे. निर्जरानेजीव किणन्याय कही
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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