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वह दूसरी कन्या ग्रहण करता है तो अकलङ्क देव प्रणीत लक्षण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता । वह व्यभिचार है।
यदि इतने पर भी पुरुष का पुनर्विवाह विवाह है, व्य. भिचार नहीं है, तो स्त्रीका पुनर्विवाह भी विवाह है, व्यभिचार नहीं हैं। प्राक्षेपक के शब्द ही पूर्वापरविरुद्ध होने से उसके वक्तव्य का खंडन करते हैं । वे काने की दृष्टि के समान इक तरफ़ा तो है ही।
आक्षेप (ऐ)--गजवातिक के भाष्य में विवाह के लिए कन्या शब्द का प्रयोग किया गया है। यह बात लेखक स्वयं मानते हैं।
समाधान-कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह योग्य स्त्री हैविवाह के प्रकरणमें दूसरा अर्थ हो हो नहीं सकता। यह बात हम पहिले लखमें सिद्धकर चुके हैं, यहाँ भी आगे सिद्ध करेंगे। परन्तु "तुप्यतु दुर्जनः" इस न्याय का अवलम्बन करके हमने कहा था कि कन्या शब्द, कन्या के अन्य विशेषणों की भाँति श्रादर्श या बहुलता को लेकर ग्रहण किया गया है । इसीलिए वार्तिक में जो विवाह का लक्षण किया है उम्म में कन्या शब्द नहीं है। टीका में कन्या-विवाह का दृष्टान्त दिया गया है, इस से कन्या का ही वरण विवाह कहलायेगा, यह बात नहीं है । अकलङ्क देव ने अन्यत्र मी इमी शैली से काम लिया है। वे वार्तिक में लक्षण करते है और उसकी टीका में बहुलता को लेकर किसी प्रान्तको इस तरह मिला देते हैं जैसे वह लक्षण ही हो। प्रकलङ्क देव की इस शैली का एक उदाहरण और देखिये
संवृत्तस्य प्रकाशनम् ग्होभ्याख्यानं ( वार्तिक ) स्त्री पुंसाभ्यां एकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशनं यत् रहो.