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सा संकल्पी हिंसा करने वाला श्राखेट वालों की तरह सप्त व्यसनी है। उसके कभी सम्यक्त्व नहीं होसकता । भत्ता जहाँ प्रशम संवेग हो गये हों वहाँ संकल्पी हिंसा होना त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है ।
समाधान- -यहाँ पर आक्षेपक व्यसन और पापकं भेद को भूल गया है । प्रत्येक व्यसन पाप है, परन्तु प्रत्येक पाप व्यसन नहीं है । इसलिये पापके सद्भाव से व्यसन सद्भाव की कल्पना करना आचार शास्त्र से अनभिज्ञता प्रगट करना हे । श्रक्षेपक अगर अपनी पार्टी के विद्वानों से भी इस व्याप्य व्यापक सम्बन्धका समझने की चेश करेगा तो समझ सकेगा । श्रक्षेपक के मतानुसार सप्तभ्यसन का त्याग दर्शन प्रतिमा के पहिले है, जब कि संकल्पी हिंसा का त्याग दूसरी प्रतिमा में हैं । इससे सिद्ध हुआ कि दर्शन प्रतिमा के पहले और सातिचार होने से दर्शन प्रतिमा में भी सप्तव्यसन के न होने पर भी संकल्पी हिंसा है। क्या श्रक्षेपक इतनी मोटी बात भी नहीं समझता ? 'प्रशम संवेग होजाने से संकल्पी हिंसा नहीं होती' यह भी श्रक्षेपक की समझ की भूल है । प्रशम संवेगादि तो चतुर्थ गुणस्थान में हो जाते हैं, जबकि मंकल्पी सहिंसा का त्याग पाँचवे गुणस्थान में होता है। इससे सिद्ध हुआ कि चतुर्थ गुणस्थान में - जहाँ कि जीव सम्यक्त्वी होता है- प्रशम संवेगादि होने पर भी सङ्कल्पी त्रस हिंसा होती है। ख़ैर, प्रक्षेपक यहाँ पर बहुत भूला है । उसे गोम्मटसार आदि ग्रन्थों से श्रविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत के अन्तर को समझ लेना चाहिये ।
आक्षेप (ऊ) - जब पुरुष के स्त्री वेद का उदय होता है, तब विवाहादि की सूझती है। भला श्रप्रत्याख्यानावरण कषाय वेदनीय से क्या सम्बन्ध है ?