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________________ ( १० ) पुत्र पौत्र होते हुए भी अपने काम भोग की तृष्णा को बुझाने के लिये पक सुकुमारी कन्या से विवाह कर सकते हैं। परन्तु कितना अन्याय है, कितना अत्याचार है कि समाज उन अयोध भौर निर्दोष बाल विधवाओं के प्रार्तनाद की और जरा भी ध्यान नहीं देता है । बुड्ढे खुसट होकर भी जब तुम्हारा वित्त विषय बासनानों की और दौडता है तो क्या तुम समझते हो कि १५-२० वर्ष की वे अयोध तरणियां जो प्रपन कुटुम्स के अन्य सब स्त्री पुरुषों को सांसारिक भोग विलासों में नित्य प्रासक्त देखती हैं, अपने चंचल चित्त को काम रख सक्ती हैं ? क्याउनका दिलनहीं चाहता कि ये भी तुम्हारी नरइ मुन्दर वस्त्राभूषणों को ग्रहण करें, स्वादिष्ट पदार्थों को खायें, और अन्य सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करे, एवं प्राकृतिक कामनाओं को यथा शक्ति तृप्त कर ?” विधवानो की इस दुर्दशा और हिन्द जाति के गहरे हास को दस्त्र कर देश के मुधारकों ने एक स्थर से विधवा विवाह की प्रथा को अपनाने का आदेश किया है। और वास्तव में इस मर्ज़ की यही टवा हो सकती है। लेकिन खेद है कि अभी बहुत से लोग इस प्रथा म सहमत होते हुए भी ' विधवा विवाह' के नाम को समाज के सामने रखते हुए घबराते हैं। प्यारे वीर, समाज सुधार को ! विधवाओं की भयंकर चीन ने इस जड़ प्रामाश की गुंजायमान कर दिया है। यदि इस समाज की रता ही मंजूर है तो अब अपने हृदय के भावों को छिपाते रहने का समय नहीं रहा है । हिन्दुस्तान में सुधार का कार्य इसी लिये रुका हुधा है कि लोग अपने विचारों को दवाये हुये हैं, यह याद रखना कि जो अपने विचारों को दबाता है वह अपनी प्रात्मा का x ‘नर हो कि नर पिशाच 'शीर्षक एक हस्त पत्रक से ।
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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