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________________ ( २३३ ) बाबीसं तित्ययग सामाइय संजमं उपदिसन्ति । छेदुव ठावणियंपुण मयवं उसहो य वीरोय ॥ ५३३ ॥ 'अर्थात् बाईस तीर्थङ्कर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं और भगवान् ऋषभ और महाबीर छेदोपस्थापना का। अगर श्राप बट्टकेर म्वामी की विद्वत्ता पर दया न बतला सके तो अपनी विद्वत्ता को दयनीय बतलाये, जो कप-मण्डक की तरह हंस के विशाल अनुभव को दयनीय बतला रही है । - आक्षेप (ग)-बिना व्यवहारका पालम्बन लिये मोक्ष मार्ग के निकट पहुंच नहीं हो सकती। (विद्यानन्द) ममाधान व्यवहार का निषेध मैं नहीं करता, न कहीं किया है। यहाँ तो प्रश्न व्यवहार के विविध रूपों पर है । कुमारीविवाह में जैसी व्यवहार-धर्मता है वैसी ही विधवाविवाह में भी है। यहाँ व्यवहार के दो रूप बतलाये हैं-व्यवहार का प्रभाव नहीं किया गया। श्राक्षेप (घ)-जब पथ भ्रष्टता होचुकी तो लक्ष्य तक पहुंच ही कैसे होगी? समाधान-मार्ग की विविधता या यान की विविधता पथभ्रष्टता नहीं है । कोई बी० बी० सी० आई० लाइनसे देहली जाता है, कोई जी० आई० पी० लाइन से, कोई ऐक्सप्रेस स, कोई मामूली गाडी से, कोई फर्स्टक्लास में, कोई थर्ड क्लास में, परन्तु इन सब में पर्याप्त विविधता होने पर भी कोई पथभ्रष्ट नहीं है। क्योंकि समय-भेद मार्ग भेद होने पर भी दिशाभेद नहीं है। विधवाविवाह, कुमारीविवाह के समान निर्गल कामवासनाको दूर करता है। इसलिये दोनोंकी दिशा एक है, दोनों ही लक्ष्य के अनकूल है, इसलिये उसे पथभ्रष्टता नहीं कह सकते।
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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