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________________ ( २३१ ) अशुद्धि भी अनन्त तरह की हैं। इसलिये उनका उपचार भी अनन्त तरह का होगा। लोक और शास्त्र दोनों ही जगह साध्य की एकता होने पर भी साधन में भिन्नता हुश्रा करती है। श्रीलालजी का यह कहना बिलकुल झूठ है कि संसारी आत्माओं की अवस्था नहीं पलटतो। अगर संसारी प्रात्मा की अवस्था न पलटे तो सब संसारियों का एक ही गुणस्थान, एक ही जीवसमास और एक ही मार्गणा होना चाहिये। निम्नलिखित बातों पर दोनों आक्षेपकों को विचार करना चाहिये। १-मनुष्य अगर अणुव्रत पाल तो वह पानो छानकर और गर्म करके पियेगा, जब कि अणुवती पशु ऐसा न कर सकेगा। वह बहताहुधा पानी पीकरकमी अणुवती बनारहेगा। व्यवहार धर्म अगर एक है तो पशु और मनुष्य की प्रवृत्ति में अन्तर क्यों? २-कोई कमण्डलु अवश्य रक्खगा, कोई न रक्खेगा, यह अन्तर क्यों? ३-किसी के अनुसार तीन मकार और पाँच फल का त्याग करके ही [बिना अणुव्रतोंके ] मूलगुण धारण किये जा सकते हैं, किसी मत के अनुसार मधु संवन करते हुएभी मूलगुण पालन किये जा सकते हैं क्योंकि उसमें मधु के स्थान पर द्यत का त्याग बतलाया है। इस तरह के अनेक विधान क्यों हैं ? अगर कहा जाय कि इस में सामान्य विशेष अपेक्षा का भेद है तो कौनसा सामान्य और कौनसा विशेष है ? औरइस अपेक्षा भेद का कारण क्या है ? ४-२२ तीर्थड्डरों के तीर्थ में चार संयमों का विधान क्यों रहा ? और दो ने पाँच का विधान क्यों किया? [कोई सामायिकका पालन करे, कोई छेदोपस्थापना का, यह एक
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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