________________
( १६१) समाधान--कोई इस प्राक्षेपक से पूछे कि तुझे मुनि बनने का अधिकार है या नहीं? यदि है, तो तू मुनि क्यों नहीं बनता ? अब तुझे धिकारी कहना चाहिये? क्या प्रापिक इनना भी नहीं समझता कि मनुष्य को धर्म करने का पूर्ण अधिकार है परन्तु धर्म उतना ही किया जासकता है कि जितनी शक्ति होती है । (विशेष के लिये जैनजगत् वर्ष ४ अङ्क ७ में 'योग्यता और अधिकार' शीर्षक लेख देखना चाहिये ।.)
"गारुपवाले मांसभक्षी हैं इसलिये जो हिन्दुस्थानी यांरुप जाते हैं उनका व अपमान करते हैं क्योंकि योरुप जाने वाले भारतीय धर्मकर्मशून्य है"। श्रीलाल के इन शब्दों के विषय में कुछ कहना वृथा है । भारतीय छूनाखून छोड़ देते हैं या पाए पगिडतों की प्राशा में नहीं चलते इसलिये उनका विलायत के लोग अपमान करते हैं, ऐसा कहना जब. दस्त पागलपन के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?
आक्षेप (स)-सुमुख आदि के दृष्टान्त से व्यभिचार की पुष्टि नहीं होती । वे ना त्याग करके उत्तम गति गये । दानादि करके उत्तमति पाई । इसमें कौनसा आश्चर्य है ?
(श्रीलाल) ममाधान-धर्म से हो उत्सम गति मिलती है, परन्तु इस सिद्धान्त को तुम लोग कहाँ मानते हो। तुम्हारा तो कहना है कि ऐसा प्रादमी मनि नहीं बन सकता, दान नहीं दे सकता, यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता। अब तुम यह स्वीकार करते हो कि व्यभिचारी भी दान दे सकता है, मुनि या धार्यिका के धूत ले सकता है। यही तो हम कहते है। विवाह से या व्यभिचार से मोक्ष कोई नहीं मानता। तुम्हारे कहने से भी यह सिद्ध हो जाता है। जैनधर्म के अनु