SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७४ ) तो विधवाओं के लिये भी अकर्तव्य नहीं कहा जा सकता। आक्षेप (ङ)-गान जाने वाले ६०८ जीवों की संख्या में कमी न पाजाय इमलिये हम विधवाविवाह का विरोध करने है। ( विद्यानन्द ) ममाधान-जैनधर्मानुसार छः महीने अाठ समय में ६०% जीव मोक्ष जाने का नियम अटल है। उसकी रक्षा के लिये प्रानपक का प्रयत्न हाम्याम्पत है। फिर आक्षक जहाँ। भरत. क्षेत्र में) प्रयत्न करता है वहाँ तो मोक्षका द्वार अभी बन्द ही है। नीमरी बात यह है कि विधवाविवाह से मोक्ष का मार्ग बन्द नही हाता । शास्त्री की प्राज्ञाएँ जो पहिले लिखी जा चुकी है और सुदृधि का जीवन हम बात के प्रबल प्रमाण है। । आक्षप (च)-~-मध्यमाची, तुम ोरता की भाँति बिलख बिलख कर क्यों ग रहे हो ? तुम्हें औरत कोन कहता है ? तुम अपने आप औरत बनना चाहो ता ११ डबल के बताशं भेज दो। गहाँ से एक नावीज़ भेज दिया जायगा। तुम तो न औरत हो न मर्द । मध्यमाची (अर्जुन ) नपुंसक हो । (विद्यानन्द ) समाधान-पाक्षेपकों को जहाँ अपनी अज्ञानता का मात्राधिक परिचय होगया है वहां उनने इसी प्रकार गालियाँ दी है । ये गालियाँ हमने इनके भंडपन की पोल खोलने के लिये नहीं लिखी हैं परन्तु इनके टुकडम्बार पन को दिखाने के लिये लिखी है । श्रादेषक १। पैसे के बताशों में मुझे स्त्री बना दन का गा दुनिया में प्रसिद्ध कर देने को तैयार है। जो लोग शपेस में मर्द को स्त्री बनाने के लिये नयार हैं वे भरपेट गेटियाँ मिलने पर धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म कहने के लिये तयार हा जाय तो इसमें क्या आश्चर्य है ! जो लोग इन पंडितों को टुकड़ों का गुलाम कहते हैं वे लोग कुछ नरम शब्दों का
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy