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( १६८ ) है । वह मोक्ष भेजने के लिये देवलोक में से प्राणियों को नहीं चुनना बल्कि उस समह में से चुनता है जिस्म का अधिक भाग कूड़े कचरे के समान है। खेत में जितनी मिट्टी है उतना अनाज पैदा नहीं होता परन्तु इसीलिये यदि कोई मुर्ख किसान यह कहे कि जिनना अनाज पैदा होता है उतनी ही मिट्टो रक्तो बाकी फैकदो तो वह पागल विफल प्रयत्न करेगा। अगर हम चाहते हैं कि दस लाख मच जैनी हो तो हमें जैन समाज में १०-१२ करोड़ भले बुरे जैनी तैयार रखना पड़ेंगे। उनमें से १० लाख सच जैनी नैयार हो सकेंगे। जैनधर्म तो सिद्धालय भेजने पर भो संख्या की त्रुटि नहीं सहना और हम कुगति और कुधर्म में भेज करके भी संख्यात्रुटि का विचार न करें तो कितनी मर्खता होगी।
उन्नीसवाँ प्रश्न जैन समाज में अविवाहितों की काफी संख्या है। इसका कारण बलाद्वैधव्य की कुप्रथा है । जैन समाज में कुमारियों की मंख्या १ लाख ८५ हजार ५१४ हैं जबकि कुमारों की संख्या ३ लाख ६ हजार २६५ है । इनमें से ६३२४६ कुमार तो ऐसे हैं जिनकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा है । इस उमर के इन गिने कुमारों को छोड़ कर बाकी कुमार अविवाहित रहने वाले ही है। एक तो कुमारियों की सख्या यों ही कम है परन्तु तीन चार वर्ष तक के लड़कों के लिये विवाह योग्य लड़कियाँ भागे पैदा होगी इस प्राशा से कुमारियों की संख्या सन्तोषप्रद मानती जाय तो ६१३७१ विधुर मौजूद हैं। ये भी अपना विवाह कुमा. रियों से ही करते हैं। फल इसका यह होता है कि ६३२४६ पुरुष बीम वर्ष की उमर के बाद भी कुमार रहते हैं। यदि ये ६१३७१ विधु विधवाओं से शादी करें तो २० वर्ष से